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________________ नवयुग निर्माता अर्थ को झूठा ठहराया जाय ? इसके अतिरिक्त शास्त्रों के जानकार बने हुए इन पंडितों में एक विलक्षण ही खूबी देखने में आई-जहां किसी पाठ का कोई ठीक अर्थ न बैठता हो वहां दो चार मिलकर एक नया कल्पित अर्थ घड़ लेते हैं उसका नाम रक्खा जाता है पंचायती अर्थ । पंजाब प्रान्त में प्रायः इस पंचायती अर्थ का ही अधिक चलन है । तब यथार्थ अर्थ का निर्णय हो तो कैसे ? २-जैनागमों में संस्कृत और प्राकृत इस नाम की दो भाषाओं का उल्लेख देखने में आता है । परन्तु इन भाषाओं का पूरा ज्ञान तो इनका व्याकरण जानने पर ही हो सकेगा। इसके अतिरिक्त प्रश्न व्याकरण में नाम, आख्यात, उपसर्ग, तद्धित, समास आदि का जो उल्लेख है वह तो सारे का सारा व्याकरण की मूल प्रक्रिया का ही संक्षेप है, तब व्याकरण जाने बिना इसका यथार्थ बोध कैसे होगा ? आख्यात क्या है ? उपसर्ग किसे कहते हैं ? एवं तद्धित और समास का स्वरूप क्या है ? और वह कितने प्रकार का है ? इत्यादि सारी बातें व्याकरण के मौलिक ज्ञान की अपेक्षा रखती हैं । ३–एक बात और भी विचारणीय है-इस सम्प्रदाय-[ जिसमें मैं दीक्षित हुआ हूँ ] से भिन्न एक और जैन सम्प्रदाय भी है जो कि अपने को इससे अधिक प्राचीन कहता व मानता है । इधर पंजाब में तो उसका प्रायः अभाव सा ही है मगर गुजरात काठियावाड़ आदि में तो उसका बड़ा प्रभाव सुनने में आता है । यह सम्प्रदाय मन्दिर और मूर्ति को मानता एवं उसे आगम विहित बतलाता है, उधर इसके अनुयायी वर्ग की बहुत बड़ी संख्या मुनने में आती है और सैकड़ों नहीं बल्कि हजारों विशाल जिनमंदिर इस सम्प्रदाय के अनुयायी धनिकों ने बनावाये हैं जो कि सदियों के बने हुए कहे जाते हैं । एवं उनमें विराजमान जिनेन्द्र देवों की प्रतिमायें भी बड़ी भव्य और विशाल तथा तहुत पुराने समय की सुनने में आती हैं जो कि इस सम्प्रदाय को प्राचीन प्रमाणित करने के लिये किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं रहने देतीं । इस सम्प्रदाय में खरतरगच्छ तपागच्छ आदि अनेक गच्छ-समुदाय कहे जाते हैं । इन गच्छों में अनेक ऐसे आगमवेत्ता धुरंधर विद्वान् हुए हैं जिन्होंने आगमों पर संस्कृत और प्राकृत में विस्तृत भाष्य और टोकायें लिखी हैं । ये सभी विद्वान् आगम सम्मत मन्दिर और मूर्ति को मानने वाले थे । जब कि मेरे सम्प्रदाय और उसके अनुयायी साधु और गृहस्थ सभी इसके निषेधक हैं, इसे आगम बाह्य कहते व मानते हैं । तब इन दोनों में से जैन धर्म का सच्चा प्रतिनिधि किसे मानना चाहिये और जीवन में किसे अपनाये रखना चाहिये ? यह है एक विषम समस्या या विकट उलझन जिसे हल करने या सुलझाने का भरसक प्रयत्न करना मेरे जैसे सत्य गवेषक आत्मार्थी साधु का सब से प्रथम कर्त्तव्य है और होना चाहिये। ४-जयपुर की मूर्ख मंडली के कथन को स्मृति पथ पर लाते हुए-"महाराज ! आप व्याकरण मत पढ़ना ! यदि पढ़ोगे तो आपकी बुद्धि बिगड़ जायगी ! आपका श्रद्धान जाता रहेगा यह व्याकरण नहीं व्याधिकरण है, अतः इसकी ओर दृष्टि नहीं देना" । छीः ! कितना जघन्य और निकृष विचार । बुद्धिमत्ता की हद हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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