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________________ अध्याय ३ तथ्य - Tater की ओर * arra के नैतिक और आध्यात्मिक विकास या ह्रास की तर- तमता में हेतुभूत एकमात्र उसकी मनोवृत्ति है । उदार थच विवेक प्रधान मनोवृत्ति, उसके विकास या उत्थान का कारण बनती है जब कि संकुचित और विवेक शून्य मनोवृत्ति उसे ह्रास या पतन की ओर लेजाती है। इसी प्रकार तथ्य शोधक मनोवृत्ति में जब विवेक का उद्गम होता है तब उसका उपार्जन की ओर वेग से गति करने वाला प्रवाह रुक जाता और वह (मनोवृत्ति) उपार्जित पदार्थों के पृथक्करण की ओर प्रस्तुत होजाती है। तात्पर्य यह कि विवेक प्रधान मनोवृत्ति में अर्जन संरक्षण और पृथककरण इन तीनों भावों को उचित स्थान प्राप्त होता है। ऐसी उदार मनोवृत्ति ही तथ्य की अन्वेषक या गवेषक समझी वा मानी जाती है और इस प्रकार की मनोवृत्ति रखने वाला व्यक्ति ही तथ्य गवेषणा की ओर प्रस्थान करता या कर सकता है । स्थानकवासी सम्प्रदाय की समग्र ज्ञान विभूति को प्राप्त कर लेने के बाद मुनि श्री आत्मारामजी की उपार्जन प्रधान मनोवृत्ति में जब विवेक का प्रादुर्भाव हुआ तब उसके वेगशून्य प्रशान्त और निर्मल स्वरूप में निम्नलिखित विचार क्रमशः प्रतिविम्बित होने लगे जबकि एक दिन श्री आत्मारामजी अपने दीक्षाकाल से तबतक के जीवन वृत्त की पर्यालोचना में निमग्न थे । १ - दीक्षा प्रहण करने के बाद मैंने इस मत के समय आगम ग्रन्थों को पढ़ा वह भी एक बार नहीं अनेक बार, और केवल एक ही से नहीं अनेकों से सुना पढ़ा और मनन किया । एवं इस मत गृहस्थ और साधु जितने भी विद्वान् अच्छे पढ़े लिखे कहे व माने जाते हैं उन सबसे मिला और अच्छी तरह से वार्तालाप किया तथा आगम सम्बंधी कतिपय पाठों के अर्थ को समझने के लिये जहां कहीं भी किसी विद्वान् साधु या गृहस्थ को सुना वहां ही पहुँचा और उससे अर्थ समझनेकी प्रार्थना की और उसने समझाया परन्तु एक दूसरे का कथन एक दूसरे से विरुद्ध ही सुनने में आया। एक कुछ अर्थ करता है तो दूसरा उसके विरुद्ध किसी अन्य ही अर्थ की प्ररूपणा करता है । किसके अर्थ को सच्चा और किसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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