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________________ आपके प्रवचनों की कुछ रहस्य पूर्ण बातें ४०१ यह सुनकर श्रोताओं में से श्री रामदित्ता मल क्षत्रिय ने कहा कि-महाराज ! इस बात को किसी दृष्टान्त के द्वारा समझाने की कृपा करें। आचार्यश्री ने फर्माया कि भाई दृष्टान्त तो बहुत हैं, परन्तु तुम्हारे घर का और तुम्हारे लिये उपयोगी, ऐसा ही एक दृष्टान्त सुनाते हैंमनुस्मृति में एक श्लोक आता है न मांस भक्षणे दोषो न मधे न च मैथुने । प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला । इसका अर्थ आम लोग यह करते हैं कि मांस भक्षण में, मदिरा पीने में और मैथुन सेवन में दोष नहीं क्योंकि सांसारिक जीवों की इन कामों में स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है और इनसे निवृत्त होना महान् फलदायक है । अब इसमें विचार करने योग्य बात यह है कि जो काम निर्दोष है,अर्थात् जिसके आचरण में कोई दोष नहीं है तो उसके त्याग करने में महाफल कैसे होगा ? जो काम दोष युक्त होगा उसके त्यागने में तो अच्छा फल हो सकता है,परन्तु जिसमें कोई दोष नहीं उसके त्याग का उपदेश कैसे उचित समझा जावे। यह कथन तो स्वयं ही अपने आपको मिथ्या ठहराता है। न्याय शास्त्र के अनुसार इसमें वदतो व्याघात दोष उपस्थित होता है। जैसे कोई कहे कि "मम मुखे जिह्वा नास्ति' अर्थात मेरे मुख में जबान नहीं, "अथवा मम माता वन्ध्या" मेरी माता वन्ध्या है, जैसे यह कहना असंगत है ऐसे ही जिसमें दोष नहीं उसके त्यागने को महान फल का जनक बतलाना भी असंगत है। परन्तु मनु जैसे महापुरुष का कथन इतना असंगत हो यह भी कैसे माना जाय । इसलिये विचारशील पुरुष इस श्लोक में रहे हुए रहस्य को ढूंढ निकालता है और इसे संगत बना देता है । अब जरा इसके परमार्थ की ओर ध्यान दीजिये ! उक्त श्लोक में "मांस भक्षणे, मद्ये मैथुने" ये तीनों शब्द एकारान्त हैं और इनमें सातमी विभक्ति है, इन तीनों के आगे अकार है, जिसका व्याकरण के नियमानुसार लोप हो रहा है। जैसे कि-"न मांसभक्षणे अदोषः" इसमें एकार के आगे "अदोषः के अकार का लोप होकर "न मांसभक्षणेऽदोषः" ऐसा रूप बन जाता है तब इसका अर्थ होता है कि "कि मांस भक्षणेऽदोषः इति न किन्तु दोष एव” अर्थात् मांसभक्षण में दोष नहीं है ऐसा नहीं किन्तु दोष ही है, कारण कि इनमें जीवों की प्रवृत्ति अर्थात् हिंसा होती है इसलिये इससे निवृत्त होना अर्थात् इसका त्याग करना महान फल के देने वाला है। इसी प्रकार मद्य और मैथुन के विषय में भी समझ लेना । इस प्रकार विचारशील पुरुष पदार्थ में रहे हुए परमार्थ को ढूंढ निकालता है । मनुस्मृति के उक्त श्लोक के रहस्य पूर्ण अर्थ को सुनकर वहां पर उपस्थित श्रोता लोग बड़े प्रसन्न हुए और सभी आचार्यश्री की मुक्तकंठ से प्रशंसा करने लगे। जैनाचार्यों ने- 'ॐ भूर्भवः स्वः तत् सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्" इस गायत्री मंत्र का अर्थ भी बड़ा रहस्य पूर्ण किया है । इसके लिये देखो श्राचार्यश्री के रचे हुए “तत्व निर्णय प्रसाद" के ११ वें स्तम्भ का पृ० २८० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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