________________
४०२
नवयुग निर्माता
आचार्यश्री के इस अर्थ को सुनकर श्रोताओं में से एक सूद बिरादरी के सज्जन ला० मोहकमचन्द बड़ी नम्रता से कहा कि महाराज ! यमुना नदी में नंगी स्नान करने वाली गोपियों के वस्त्र उठाकर ले जाने और रूप में जल से बाहर निकल कर उन्हें ग्रहण करने आदि का जो प्रसंग भागवतादि पुराण ग्रन्थों सुना जाता है, उसका परमार्थ समझाने की भी आप अवश्य कृपा करें । साथ में अन्य श्रोताओं ने भी आचार्यश्री से इसके लिये प्रार्थना की।
आचार्यश्री - भाइयो ! तुम लोगों की यदि यही इच्छा है तो मैंने इसका जो परमार्थ समझा है, उसे सुना देता हूँ। तुम लोगों को वह उचित लगे तो उसे ग्रहण कर लेना अन्यथा मेरा कथन मेरे ही पास रहने देना | आज से पूर्व तो कभी सभा में इसका अवसर आया नहीं परन्तु आज आप लोगों ने यह प्रसंग चला दिया है इसलिये कहेदेता हूँ। भगवान की बंसी, कदम वृत्त, यमुना नदी और गोपियां इन शब्दों का परमार्थ मेरे विचारानुसार तो इस प्रकार है-कदम वृक्ष तो देवाधिदेव का समवसरण है और बंसी भगवान् की वाणी है, गोपियां जगदवासी जीव हैं और पांचों इन्द्रियों के विषय रूप यमुना नदी का जल है । एवं कदम वृक्ष पर बैठने और बंसी बजाने वाले गोपाल रूप वीतराग देव हैं । संसारवासी जीव ज्ञान और क्रियारूप वस्त्रों को त्यागके विषयरूप यमुना नदी के काले पानी में निर्लज्ज होकर स्नान कर रहे हैं। उन्हें भगवान् अपनी वाणीरूप बंसी को सुनाते हुए यह उपदेश दे रहे हैं कि तुम विषयवासना रूप यमुना के जल से बाहर निकलो अर्थात् विषयों को त्यागो, इसी रूप में हाथ जोड़ो और नियम लो, तब तुम्हारे ज्ञान और क्रियारूप वस्त्र तुम्हें वापिस मिलेंगे । यह इसका परमार्थ है । महात्मा आनन्दघनजी फरमाते हैं
गगन मंडल में गाय वियानी, धरती दुद्ध जमाया । माखण तो विरले ने पाया, छाछ जगत भरमाया ॥
अर्थात् आकाश मंडल में यानि पृथिवी से ऊंचे समवसरण में बिराजमान होकर प्रभु ने यह उपदेश दिया कि गो, नाम वाणी का है, उसका वियाना यानि पृथिवी पर प्रकाश होना है, उस वाणीरूप विलोने से निकला हुआ तत्त्वरूप माखन तो किसी विरले को ही प्राप्त होता है अर्थात यथार्थ तत्त्व को समझने वाला तो कोई विरला ही होता है और छाछरूप असार एवं अतत्त्वरूप वस्तु में तो सारा जगत ही भरमा रहा है। शास्त्रों में भगवान् को महागोप की उपमा दी गई है, वे जगतवासी जीवों को अपनी वारणी के द्वारा सन्मार्ग पर लाने से गोप या महागोप कहे जाते हैं । गोप शब्द का व्युत्पत्तिजन्य अर्थ होता है परम संयमी अथच सत्यवक्ता - आप्त पुरुष | गोपति रक्षतीति गोपः गगो नाम वाणी और इन्द्रियों का है, उनके संरक्षक को गोप कहते हैं । इसलिये विचारशील पुरुष को हर एक पदार्थ में रहे हुए सत्यांश को खोजने का यत्न करना चाहिये, तभी यथार्थ रूप से वास्तविक तत्त्व को उपलब्ध कर सकता है। आज के प्रवचन में इतने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org