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________________ अध्याय ११४ "आपके प्रवचनों की कुछ रहस्यपूर्ण बाते" लुधियाने में आपश्री के पधारने पर जितना हर्ष लुधियाने के जैन संघ को होता, उससे कहीं अधिक वहां के जैनेतर समुदाय को होता था। इसलिये आपके प्रतिदिन के प्रवचनों में जैनों की अपेक्षा अन्य मत के लोगों की अधिक संख्या होती । पंजाब में गुजरात की भांति पक्षपात और विचार संकोच बहुत कम है, वहां किसी भी धर्म या सम्प्रदाय का विद्वान-फिर वह साधु हो या गृहस्थ-चलाजाय उसके भाषण या उपदेश को सभी मतमतान्तर के लोग सुनने को आते और शंका समाधान करते । इसी प्रकार आचार्यश्री के प्रवचनों को लोग बड़ी श्रद्धा से सुनते और किसी को किसी विषय पर कोई सन्देह हो तो वह पूछता और प्राचार्यश्री उसका शांतिपूर्वक सन्तोषजनक उत्तर देते । एक दिन व्याख्यान में प्रसंगोपात्त आपश्री ने फर्माया कि संसार में जीवों की प्रकृति भिन्न भिन्न होती है उसी के अनुसार वे वस्तु तत्त्व को ग्रहण करते हैं, इसलिये कभी कभी उनका ग्रहण किया हुआ सत्य भी असत्य होजाता है और असत्य, सत्य बनजाता है। जैसे एक ही तालाब का पिया गया पानी गाय में दूध होजाता है और सर्प में विष बनजाता है । इसी प्रकार विचारशील सम्यग्दृष्टि पुरुष तो असद् वस्तु में भी आंशिक रूप से विद्यमान सदंश को अपनाता हुआ उसे सत्य ठहरालेता है और मिथ्या दृष्टि-विचार विधुर वस्तु के सतस्वरूप को भी मिथ्या समझता हुआ उसे असत्य प्रमाणित करता है | तात्पर्य कि सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्या श्रुत को भी अपने सद्विचारों में गर्भित करता हुआ उसे सम्यक श्रुत बनालेता है और मिथ्या दृष्टि जीव अपने परिणामों के अनुसार सम्यक् श्रुत को भी मिथ्या बना डालता है। $ श्री नन्दीसूत्र की निम्नलिखित गाथा का भी यही भावार्थ है "समद्दिट्ठि परिगहियाणि मिच्छासुत्ताणि समसुत्ताणि । मिच्छादिट्ठि परिगहियाणि समसुत्ताणि मिच्छामुत्ताणि ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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