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नवयुग निर्माता
में आये और आचार्यश्री के चरणों को पकड़कर एकदम रोने लगे। यह देख परम कृपालु आचार्यश्री ने उन्हें चरणों से अलग कर के आश्वासन देते हुए कहा-क्यों क्या हुअा ? इतने उदास और घबराये हुए क्यों हो ? तथा इस तरह बालकों की तरह रोने का क्या मतलब ? तब ला. गंगारामजी बादलों की ओर अंगुलि निर्देश करते हुए भर्राई हुई आवाज़ में बोले-गुरुदेव ! इन उमड़े हुए काले काले बादलों को देखकर हम सब हतोत्साह हो रहे हैं । अगर ये [ जो कि इस समय तो छोटी छोटी बदें ही गिरा रहे हैं ] बादल कहीं बरस पड़े तो फिर हमारा कोई ठिकाना है, कृपानाथ ! इस वक्त तो हमें एक मात्र आपश्री के चरणों का ही सहारा है । इतना कहते ही गिड़गिड़ा कर चरणों में गिर पड़े । इस समय का दृश्य बड़ा ही करुणाजनक था।
तब आचार्यदेव उनको अपने चरणों पर से उठाते हुए हंसकर बोले इतना क्यों घबरा रहे हो, शासन देव की कृपा से सब ठीक हो जावेगा। जाओ अपने अपने काम में लगो ! हम तो क्या तुम्हारे लिये तो मुसलमान भी खुदा से अर्ज कर रहे हैं।
आचार्यश्री के इन वचनों से सबको धैर्य और सान्त्वना मिली। वे सब वहां से उठे और वन्दना नमस्कार करके प्रतिष्ठा सम्बन्धी भगवान की सवारी के आयोजन में लग गये।
इधर रात भर बादलों की घटायें आती हैं और विखर जाती हैं, इनको देखकर लोगों का मन भी कभी उत्साह से शुन्य और कभी पूरित होता रहा । अन्त में प्रातःकाल होते ही एक ऐसी विचित्र हवा चली कि उमड़े हुए बादलों का कहीं नामोनिशान भी नहीं रहा । धीरे २ सूर्य भगवान ने भी अपनी प्रकाश पूर्ण किरणों को फैलाना प्रारम्भ किया और लोगों के मुकलित और मुआये हुए मन कमल एकदम खिल उठे। काफी दिन चढ़ने पर जुलूस की तैयारी का प्रारम्भ हुअा इतने में क्या हुआ कि अाकाश में एक छोटीसी बदली उठी और वह सारे नगर में छिड़काव करके अदृश्य होगई । यह देख शहर की जनता के आश्चर्य का कुछ पारावार न रहा। हर एक स्त्री पुरुष के प्रसन्न मुख से यही निकलने लगा कि भगवान को सवारी के लिये मार्ग का साफ और शुद्ध होना भी तो आवश्यक था जो कि इन्द्र महाराज ने कर दिया। इस घटना को जिन भाविक पुरुषों ने देखा उस वक्त तो उनका मन भी नगर की सड़कों की माफिक धुलकर शुद्ध बन गया।
बड़ी सजधज से भगवान की सवारी का जलूस निकला और नगर का शायद ही कोई ऐसा अभागा स्त्री पुरुष होगा जिसने रथ यात्रा के इस जुलूम को न देखा हो । मुहूर्त के समय प्रभु को गादी पर विराजमान किया गया और शांति स्नात्र आदि सारे विधि विधान के साथ प्रतिष्ठा का सारा काम सुचारु रूप से निर्विघ्नतया समाप्त होगया। देश काल के पूर्ण ज्ञाता और व्यवहार कुशल आचार्यश्री के
प्रतिष्ठा-महोत्सव की खुशी में अम्बाला के श्री संघ ने बिना किसी भेद भाव के वहां के अन्य धर्म स्थानों-मन्दिर मसजिद और गुरुद्वारों का भी एक एक लड्डू और साथ में कुछ रकम
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