SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भ्रमण और ज्ञानार्जन उस समय आपके गुरु श्री जीवनरामजी "सलाना" ग्राम में विराजे हुए थे इस लिये भानपुर से विहार करके "सीत्ताम'' और उजावरा होते हुये आप सलाना पहुंचे और गुरुजी से भेंट की, वहां से रतलाम आये । उन दिनों रतलाम में सूर्यमल कोठारी नाम का एक गृहस्थ रहता था, जो कि अपने आपको ढूंढक मत का सबसे अच्छा जानकार समझता था । परन्तु उसकी मान्यता और ढूंढक मत की मान्यता में एक विशेष अन्तर था, ढूंढक सम्प्रदाय वाले ३२ मूल आगमों को प्रमाण मानते हैं जब कि सूर्यमल कोठारी उनमें से केवल ११ अंगों को मान्य रखता था उसका कथन था कि जैन मत में प्राचारांग प्रभृति केवल ग्यारां ही शास्त्र सच्चे एवं प्रमाणिक हैं । शेष तो यतियों की कल्पना से निर्मित हुये हैं । मुनि श्री आत्मारामजी ने अपने प्रवचन में इस सिद्धान्त की बड़ी तीव्र आलोचना की और कोठारी जी के सन्मुख बड़ी प्रौढ़ता से उनके उक्त मन्तव्य का प्रतिवाद करते हुए अपनी अकाट्य युक्तियों से उन्हें निरुत्तर कर दिया। आपका विचार वहांसे विहार करके चतुर्मास कहीं अन्यत्र करने का था परन्तु जनता के सप्रेम विशेष आग्रह से आपने वहीं चतुर्मास करने की अनुमति देदी और खचरोद, बदनावर, वड़नगर, इन्दौर तथा धारानगरी आदि शहरों में भ्रमण करते हुए फिर रतलाम में पधारे और सं० १६१६ का चतुर्मास वहीं किया । इस चतुर्मास में आपके प्रवचनों से जहां भाविक जनता को लाभ हुआ और कुठारी सूर्यमल के फैलाये हुए जाल से उन्हें छुटकारा मिला वहां आपको भी अपने ज्ञानार्जन में रही हुई कमी को पूरा करलेने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ। दैवयोग से श्री मगन जी स्वामी का चतुर्मास भी रतलाम में ही था । भानपुर में, मिलाप के समय मगन जी स्वामी से भी कुछ ज्ञानाभ्यास करने की आपकी जो उत्कंठा जाग्रत हुई थी उसे सन्तुष्ट करलेने का यह अच्छा अवसर था । इसलिये ढूंढक सम्प्रदाय की शास्त्रीय पूंजी के उपार्जन करने में जो थोड़ी बहुत कमी आपको नजर आती थी उसे भी आपने बटोर लिया । इस सम्प्रदाय के सर्व मान्य ३२ आगम ग्रन्थों का, मर्मज्ञों के बतलाये हुए अर्थों सहित पूर्णरूप से मथन करडाला । दूसरे शब्दों में-उक्त सम्प्रदाय के माननीय सम्पूर्ण शास्त्रों के सर्वेसर्वा पारंगत होने के साथ २ उसके लब्ध प्रतिष्ठ साधुओं में भी आपको असाधारण और उल्लेखनीय स्थान प्राप्त हुआ। इधर ढूँढक मत या स्थानकवासी सम्प्रदाय के अनुयायी साधु और गृहस्थ वर्ग, भी आपजैसे आगम निष्णात प्रतिभाशाली चारित्रशील मुनिरत्न के उपलब्ध होने पर अपने सद् भाग्य की भूरि २ प्रशंसा करने लगा । इसके अतिरिक्त आपके गुरुवर्य श्री जीवनराम जी के हर्ष का तो कुठारी सूर्यमल के निर्मूल मन्तव्य के प्रतिवाद में श्री श्रात्माराम जी ने जिन प्रामाणिक युक्तियों का अनुसरण किया था उनमें से उनके मुखारविन्द से सुनी और स्मृति में रही हुई एक युक्ति का यहां पर उल्लेख किया जाता है-यदि ग्यारह अंगशास्त्रों के सिवाय शेष सभी कल्पित हैं तो इन ग्यारह शास्त्रों में उनके नाम का और विषयका निर्देश कैसे ? जैसे कि श्री भगवती सत्र में औपपातिक सूत्र का एवं पन्नवणा का उल्लेख कैसे ? तथा समवायांग में कल्पसत्र का निर्देश कैसे ? इसलिये यह मान्यता प्रामाणिक नहीं मानी जा सकती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy