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नवयुग निर्माता
पटवा नाम के ओसवाल गृहस्थ के पास आपने पढ़ना आरम्भ किया पटवा वैद्यनाथ जैनागमों के अच्छे अभ्यासी थे और शब्द शास्त्र में भी उनका अच्छा प्रवेश था, एवं श्रागमों पर लिखेगये पूर्वाचार्यों के भाष्य
और टीका आदि के कथन पर आस्था रखते थे। उन्होंने आत्माराम जी से कहा-कि यदि आप व्याकरण का अध्ययन करने के बाद जैनागमों का-उनके भाष्य और टीका आदि के साथ अभ्यास करें तो आपको बहुत लाभ होगा और पद पदार्थ का यथार्थ निर्णय भी आपके लिये सुकर हो जायगा ! इत्यादि । परन्तु जैसे अजीर्ण ज्वर के रोगी को, स्वादिष्ट से स्वादिष्ट भोजनमें भी अभिरुचि नहीं होती वैसे ही वैद्यनाथ पटवा के बोधप्रद हितकारी वचन भी आत्माराम जी को रुचिकर नहीं हुए। कर्मों की विषम परिस्थिति का इससे अधिक जीता जागता उदाहरण और क्या हो सकता है ?
जयपुर से विहार करके ग्रामानुग्राम विचरते हुए पाली ( मारवाड़) से आप नागोर पधारे और सं० १६१४ का चतुर्मास यहीं पर किया। यहां आपने पूज्य कचौरीमल, नन्दराम और फकीर चन्द जी श्रादि साधुओं के पास सूयगडांग, प्रश्न व्याकरण, पन्नवणा, और जीवाभिगम आदि आगम ग्रन्थों का अभ्यास किया। वहां उस समय श्री फकीर चन्द जी के पास उनका हर्ष चन्द नाम का एक शिष्य सिद्ध हेमकौमुदी, (चन्द्र प्रभा नाम का व्याकरण ग्रन्थ ) पढ़ता था । आत्माराम जी को कुशाग्रमति देख फकीर चन्द जी ने उनसे भी व्याकरण के इस ग्रन्थ का अध्ययन करने की प्रेरणा की परन्तु आपकी यह प्रेरणा-चिकने घड़े पर पड़ने वाली बून्द की भांति आत्माराम जी के पूर्वोक्त कुसंस्कार जन्य मलदिग्ध अन्तःकरण पर टिक न सकी ! टिकती भी कैसे ? पूर्वोक्त अशुभ कर्म की भवस्थिति के पूर्ण होने का अभी समय जो नहीं
आया था ? अस्तु । चौमासे की समाप्ति के बाद बिहार करके मेडता, अजमेर और किशनगढ़ आदि शहरों में थोड़ा २ समय निवास करके १६१५ का चतुर्मास फिर जयपुर में किया इस भ्रमण में आपने अपने
आगमाभ्यास को खूब उत्तेजित किया और दशवकालिक उत्तराध्ययन, सूत्र कृतांग, स्थानांग, अनुयोगद्वार, नन्दी, आवश्यक ( ढूंढक सम्प्रदाय का स्वकल्पित) और वृहत्कल्प आदि का पूर्ण रूप से अभ्यास कर डाला । उस समय अनुमान दस हजार श्लोक प्रमाण आगम साहित्य आत्माराम जी के मुखाग्र था । जैसा कि ऊपर बतलाया गया है-उस समय आत्माराम जी के मन में एक मात्र ज्ञानार्जन की ही तीव्र लग्न थी, वे जहां कहीं भी किसी पढ़े लिखे योग्य साधु का नाम सुनते वहीं पर पहुँचते और उस महानुभाव के पास जो कुछ भी ग्रहण करने योग्य होता उसे ग्रहण करने का भरसक प्रयत्न करते ।
उन दिनों "मगनजी स्वामी” नाम के एक साधु ढूंढक सम्प्रदाय में सर्वश्रेष्ठ माने जाते थे, इसीलिये उनकी सम्प्रदाय में बहुत ख्याति थी । उनको मिलने की आपके मन में बहुत उत्कंठा थी। जयपुर का चौमासा पूर्ण करके श्री बक्षीराम नाम के साधु के साथ माधोपुर रणथम्भोर होते हुए मगन स्वामीजी के दर्शनार्थ आप बूंदी कोटा में पधारे । वहां आने पर पता चला कि मगनजी स्वामी भानपुर में विराजमान हैं तब आप भानपुर पहुंचे और मगनजी स्वामी से भेंट की। दोनों सन्तों के मिलाप में सात्विक स्नेह था, इसलिये एक दूसरे में दिल खोलकर विचारों का आदान प्रदान हुआ जिससे दोनों महानुभावों के मन को अपूर्व सन्तोष मिला ।
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