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________________ भ्रमण और ज्ञानार्जन चतुर्मास की समाप्ति के अनन्तर ज्ञानोपार्जन के निमित्त आपने यमुना पार की ओर विहार किया और वहां श्री रूड़मल, नाम के साधु के पास से श्री उववाई - औपपातिक सूत्र का अध्ययन किया । वहां से दिल्ली होकर सरगथला नाम के ग्राम में पहुँचे और सं० २६१२ का चतुर्मास आपने वहीं पर किया । यहां पर आपके दादा गुरु श्री गंगाराम जी का स्वर्गवास हो गया । १३ चौमासे के बाद अपने गुरुभाई के साथ ग्रामानुग्राम विचरते हुए आप जयपुर पधारे । जयपुर में श्रमीचन्द नाम एक ढूँढक साधु विराजमान थे। उस समय उनकी बड़ी ख्याति थी और इस समाज में वे श्रुतवली के समान गिने जाते थे । उनके पास आत्माराम जी ने आचारांगसूत्र का अध्ययन किया। एक दिन जयपुर के ढूँढ़क श्रावकों ने श्री आत्माराम जी से सानुरोध विनय पूर्वक कहा कि “महाराज ! आप बड़े योग्य साधु हैं आप निरन्तर ज्ञानाभ्यास में लगे रहते हैं परन्तु एक बात का आपने अवश्य ध्यान रखना ! आपने व्याकरण पढ़ने का ख्याल नहीं करना, यदि आप व्याकरण पढ़ने लग जाओगे तो आपकी बुद्धि बिगड़ जायगी ! आपका श्रद्धा जाता रहेगा ! यह व्याकरण नहीं किन्तु व्याधिकरण है अतः इसकी ओर कभी दृष्टि नहीं देना !" उस समय की बात समझिये अथवा किसी प्राग्भवीय कर्मविशेष का प्रभाव मानिये आत्माराम जी को उनलोगों का अहितकार कथन भी हितकारी प्रतीत हुआ । और उन्होंने शब्दार्थ ज्ञान में सब से अधिक उपकार करने वाले व्याकरण शास्त्र की ओर उस समय लक्ष्य नहीं दिया । इसी लिये व्याकरण का कुछ ज्ञान रखने वाले मुनि - श्री फकीर चन्दजी के - " तुम प्रतिभाशाली व्यक्ति हो आत्माराम ! तुम मेरे पास कुछ समय रहकर सिद्धहेम चन्द्रप्रभा व्याकरण पढो ! इससे तुमको शब्दार्थ ज्ञान में बहुत सहायता मिलेगी " इन वचनों का उनके मनपर कोई प्रभाव नहीं हो पाया । जयपुर से विहार करके आप अजमेर पहुंचे वहां - पर विराजे हुए श्री लक्ष्मी जी, देवकरण और जीतमलजी आदि साधुओं से भी आपने कई एक जैन शास्त्रों का अभ्यास किया । वहां से फिर अमी चन्द जी के पास पढ़ने के लिये जयपुर में आये और १६१३ का . चौमासा वहीं पर किया । चौमासे के अनन्तर विहार करके नागोर ( मारवाड़ ) पधारे वहां हंसराज नामाश्रावक के पास आपने अनुयोगद्वार सूत्र का अध्ययन किया । वहां से विहार करके जयपुर के वैद्यनाथ "व्याकरणेन विनाद्यन्ध: वधिरः कोशवर्जितः " इस अभियुक्तोक्ति के अनुसार व्याकरण के ज्ञान से शून्य व्यक्ति की शब्दार्थ के यथार्थ ज्ञान में वही करुणाजनक स्थिति होती है जैसी किसी वस्तु के रूप निर्णय में एक जन्मान्ध व्यक्ति की देखने में आती है । उनदिनों ढूंढक सम्प्रदाय में व्याकरण का ज्ञान रखने वाला कोई विरला ही साधु देखने में श्राता था | इसके अतिरिक्त कुछ ऐसी घटनायें भी हुई कि पढ़े लिखे कुछ साधु इस मत का परित्याग करके प्राचीन जैन परम्परा में दीक्षित हो गये, इसका प्रभाव उन अनपढ़ साधुत्रों पर बहुत हुआ तब से भोली भाली ज्ञान जनता पर प्रभाव जगाने की खातिर श्रद्धाभ्रष्टता की श्राड़ लेते हुए उन लोगों ने व्याकरण आदि के पठन पाठन के विरुद्ध आन्दोलन करना शुरू करा दिया उसी के परिणाम स्वरूप जयपुर के लोगों का यह कथन था । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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