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अध्याय २
भ्रमण और ज्ञानार्जन
सत्य के जिज्ञासु मुनि श्री आत्माराम जी की अभिरुचि ज्ञानार्जन की ओर बढ़ी । सत्यगवेषणा के लिये ज्ञानोपार्जन की इतनी ही आवश्यकता है जितनी कि अन्धकार में पड़ी हुई वस्तु को उपलब्ध करने के लिये सूर्य या दीपक आदि के प्रकाश की आवश्यकता होती है । श्री आत्माराम जी की प्रतिभा इतनी तीक्ष्ण और निर्मल थी कि एक दिन में सौ श्लोक जितना पाठ कंठ कर लेना तो आपके लिये एक साधारण सी बात थी ? आपके गुरु श्री जीवन राम जी वैसे तो बड़े सरल और चरित्रशील व्यक्ति थे परन्तु अधिक पढ़े लिखे नहीं थे इस लिये काशीराम नाम के एक ढूंढक श्रावक के पास से आपने श्री उत्तराध्ययन सूत्र के कितने एक अध्ययनों का स्वाध्याय किया। जैसाकि ऊपर कहा गया है आप एक प्रतिभाशाली कुशाग्र बुद्धि पुरुष थे इसलिये दीक्षा के उपरान्त थोड़े ही समय में व्याख्यान करने-उपदेश देने लग गये । गुरुजी के साथ विचरते २ सरसा-राणिया ग्राम में पहुँचे और सं० १६११ का चतुर्मास गुरुजी के साथ आपने वहीं पर व्यतीत किया । वहां पर मालेरकोटला के रहने वाले “खरायतीराम' नाम के एक वैश्य ने श्री जीवन राम जी के पास दीक्षित होकर आपका गुरुभाई बनने का श्रेय प्राप्त किया।
सरसा राणिया के इस चतुर्मास में श्री आत्माराम जी ने वृद्ध पोसालीय तपगच्छ के श्री रूपऋषि जी के पास प्रथम प्रारम्भ किये गये उत्तराध्ययन सूत्र को सम्पूर्ण किया।
ये महात्मा बड़े अात्मार्थी और तपस्वी निकले, इन्होंने कुछ वर्षों बाद हूँढक मत का परित्याग करके प्राचीन जैन परम्परा के संवेगीमत को अंगीकार किया और आत्मशुद्धि के लिये तपश्चर्या का प्रारम्भ कर दिया । आप जीवन पर्यन्त दो उपवास के बाद पारणा करते रहे । संवेगी मत में दीक्षित होने पर गुरुदेव ने आपका नाम "खांति विजय” रक्खा । आपने अपने पुण्य-पादविहार से अधिकतया गुजरात और काठियागड़ की भूमि को ही पावन किया अर्थात् अाप गुजरात काठियावाड़ में ही विचरते रहे ।
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