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________________ जन्म और बाल्यकाल विक्रम सं० १६१० की मार्गशीर्ष शुक्ला पंचमी के दिन मालेर कोटला में आपका दीक्षा समारोह सम्पन्न हुआ । स्थानकवासी जैन साधु श्री जीवनरामजी को आत्माराम जैसे शिष्यरत्न की प्राप्ति हुई और युवक आत्माराम ने उनके चरणों में आत्म-निवेदन करके जीवन विकास का श्री गणेश किया । दीक्षित होने के बाद युवक आत्माराम अब मुनि आत्माराम के नाम से सम्बोधित होने लगे। उन दिनों पञ्जाब में स्थानकवासी जैन मत का ही अधिक प्राबल्य था, प्राचीन जैन परम्परा तो लुप्त प्रायः हो रही थी, उसके अनुयायी भी अंगुलियों पर गिनने जितने रह गये थे । कहीं कहीं पर दिखाई देने वाला एक आध देव मन्दिर उसकी स्मृति बनाये हुये था । लोग प्राचीन जैन परम्परा की शास्त्रीय देवपूजा को सर्वथा भूल बैठे थे । यतियों की संरक्षता में रहे हुये किसी २ देव मन्दिर में सेवा पूजा का प्रबन्ध था । उस समय मंदिरों का स्थान थानकों ने हीले रक्खा था । देव पूजा के विरोधी इस सम्प्रदाय ने प्राचीन जैन धर्म के वास्तविक स्वरूप को आच्छादित कर रक्खा था इस लिये जैनेत्तर लोग इसी सम्प्रदाय को जैन धर्म का सञ्चा प्रतिनिधि मानते और इसी के आचार विचारों को जैन धर्म का वास्तविक स्वरूप समझते । परन्तु स्थानकवासी सम्प्रदाय प्राचीन श्वेताम्बर परम्परा से निकला हुआ देवपूजा विरोधी एक फिरका है, जिसका जन्म विक्रम की सोलवीं और १८ वीं शताब्दी के लगभग हुआ । इस फिरके के साधु चौवीस घंटे मुखपर पट्टी बान्धे रखते हैं । इस मत का विशेष वर्णन प्रसंगानुसार अन्यत्र किया जावेगा। पंजाब के जोधामल आदि सभी ओसवाल जो कि पंजाब में भावड़े के नाम से प्रसिद्ध हैं-प्रायः इसी मत के अनुयायी थे। जो कि बहुत समय के बाद श्री आत्मारामजी के सदुपदेश से शुद्ध सनातन जैन धर्म के अनुयायी बने । इसी जैनमत की दीक्षा को श्री आत्मारामजी ने अपनाया परन्तु कुछ समय बाद ज्ञानचक्षु के उघडने से सत्य के पुजारी इस वीर क्षत्रिय ने कांचली को त्यागने वाले सर्प की भांति इसे असार समझ कर त्याग दिया और प्राचीन शुद्ध सनातन जैन धर्म में दीक्षित होकर इसी पंजाब देश में उसकी विजय दूंदभी बजाई । और उसकी विजय पताका को एक विशाल सिंहासन पर प्रतिष्ठित करने का श्रेय प्राप्त किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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