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________________ १० नवयुग निर्माता सामायिक आदि धार्मिक कृत्यों में उनकी अभिरुचि थी। कुछ तो उस वातावरण का प्रभाव और कुछ उस समय में वहां आने वाले स्थानकवासी जैन मुनियों की संगति दोनों ने मिलकर युवक आत्माराम के मनमें धर्म के प्रति जागरुकता उत्पन्न करदी । अब उनका मानसिक झुकाव था धर्म की ओर और अनास्था थी संसार कीर, सांसारिक विषयों से उनका मन निरन्तर हटने लगा और ज्ञानार्जन में प्रगति करने लगा । परन्तु सत्य की खोज कैसे हो ? नवयुवक आत्माराम के कच्चे मन को यही बात निरन्तर सताने लगी । लोहा गर्म हो तो उसपर लगाई गई चोट काम कर जाती है। मन की ऐसी सन्देह दोलायित परिस्थिति के समय वहां चौमासा हे हुए स्थानकवासी जैन मुनि श्री जीवनरामजी के वैराग्य गर्भित सदुपदेशों ने युवक आत्माराम के स्वच्छ मनपर बहुत गहरा प्रभाव डाला। जिससे उसका चित्त सांसारिकता से उखड़ कर त्याग की ओर झुकाया । त्याग ही सच्चा अर्जन है, सच्चे सुख लाभ का मार्ग त्याग में ही निहित है इस प्रकार वे सतत चिन्तन से धीरे धीरे इसी ओर आकर्षित हुए युवक आत्माराम ने साधु बनने का मौन निश्चय कर लिया। परन्तु आपका यह मौन निश्चय चम्पक- पुष्पगत उत्कट -सुगन्ध की भांति सारे नगर में फैल गया और उससे लाला जोधामल की चिन्ता बढ़ी । जोधामलजी की चिन्ता उचित थी। अपने मित्र की अमानत रूप इस पोषित पुत्र को धनी मानी और सफल गृहस्थ बनाने की उनकी चिन्ता, उसे त्याग मार्ग से हटाने की ओर लगाई। उन्होंने अपने प्राणप्रिय धर्मपुत्र आत्माराम को हर प्रकार से समझाने बुझाने का यत्न किया । अनेक प्रकार के प्रलोभन दिये परन्तु सब व्यर्थ । धधकते हुए अग्नि के कोयले पर पड़ी जल की बूंद उसे क्या बुझा पाती, स्वयं ही नष्ट होकर रहगई । तब एक और उपाय सोचा गया, आत्मारामजी की माता रूपादेवी को बुलाया। मां का स्नेह बन्धन, मां के हृदय की पुकार और उसकी आंखों से बह रहे अश्रुसागर को पार करना बड़ा दुस्तर है। मातृस्नेह की इस चिकनी चट्टान पर से बड़े बड़े फिसल जाते हैं । वीर प्रभु की वीर आत्मा को मातृस्नेह की इस कड़ी जंजीर ने ही तो कुछ समय के लिए बान्धे रक्खा | पर युवक आत्माराम के मन की नौका न जाने किस धातु की बनी हुई थी कि मातृस्नेह के इस दुस्तर सागर को भी पार कर गई । उसकी पुकार ने भी उसके हृदय में किसी प्रकार की हलचल पैदा नहीं की । वह अपने विचार से अणुमात्र भी विचलित नहीं हुआ। तब मां ने अपने मातृऋण और उपकार की आड़ ली, पर युवक आत्माराम को तो अकेली मां का ही नहीं किन्तु भारत की अन्य अनेक माताओं का ऋण चुकाना अभीष्ठ था, वे अकेली मां के लिये कैसे रुकते। जब यह वार भी खाली गया तो माता के निश्चय के सामने सिर झुका दिया और पुत्र ने हर्षातिरेक से मां के पुनीत चरणों पर अपना मस्तक रखदिया और निर्धारित उद्देश की सफलता के लिये मां से आशीर्वाद मांगा जिसे माता ने भी प्रसन्नता पूर्वक दे दिया । अब युवक आत्माराम केवल मां का, बाप का या परिवार का न होकर सारे विश्व का बनगया । उसने सत्य और अहिंसा की सतत प्रेरणा देने वाले साधु वेष को अपनाते हुए अपने नाम आत्माराम को सार्थक उज्ज्वल और महान् बनाने के लिए सन्मार्गपर प्रथम चरण रक्खा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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