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________________ जन्म और बाल्यकाल छिन गई । परन्तु आत्मारामजी अपने साथियों की नाराजगी को कैसे सहन करते उनको एक और नया ताश बना देने का वचन देकर उन्हें शान्त किया और दूसरे दिन उससे भी सुन्दर तारा बनाकर उनकी उदासीनता को प्रसन्नता में बदल दिया । ६ इसके अतिरिक्त उस समय की, अंग्रेजों और सिक्खों में लड़ी गई लड़ाइयों के चित्र - जिनमें अंग्रेजी सेना और सिक्ख सेना का परस्पर युद्ध; दौड़ते हुए घुडसवार; इधर उधर भागते हुए सशस्त्र सैनिक आदि के er कित थे और अपने धर्म पिता के घर का सांगोपांग चित्र, आपकी चित्र कला के सर्वोत्कृष्ट नमूने थे जिन्हे देखकर प्रेक्षक चकित से रह जाते। लोग हैरान थे कि इसे यह कला कौन सिखा गया ? परन्तु जो कृतियां उन्होंने अपने आगामी जीवन में प्रस्तुत कीं, उनके विषय में वे क्या जानते थे ? हां यह सब समझने लगे थे कि आत्माराम कोई साधारण बालक नहीं । विश्व की अन्यतम विभूति है । यह चित्रकला उन्हें कोई सिखा न गया था, किन्तु इन चित्र रेखाओं में उनका आत्मा स्वयं अपने विकास के लिये अपनी अदृश्य शक्ति को किसी महान कार्य में लगाने का मार्ग तलाश करता था और वह मार्ग सत्य और अहिंसा का मार्ग । सत्य की खोज तो उन्होंने बाल अवस्था के समाप्त होते होते ही आरम्भ करदी थी । लड़के थोड़ी बात में झूठ बोलते परन्तु आप इससे अलग रहते, आप को सत्य से अधिक प्यार और झूठ से अधिक घृणा थी । सत्यनिष्ठा आपके जीवन की सबसे अधिक मूल्यवान वस्तु थी । जिसे आप सर्व प्रकार से सुरक्षित रखने में सचेष्ट रहते । इसी सत्य-निष्ठा के प्रभाव से आप अपने समय के एक युगप्रवर्तक महापुरुष बने । अब रही हिंसा और जीव रक्षा की बात ? इसे तो आपने अपने जीवन को भी जोखम में डालकर अपनाया, जिसके उदाहरण इतिहास में भी इने गिने ही मिलेंगे। हुआ यह कि एक दिन सब बालक इकट्ठे होकर नदी में स्नान करने चले, नदी पर पहुंचे तो क्या देखते हैं कि एक मुस्लिम स्त्री अपने बच्चे को स्नान करा रही है, बच्चा किसी तरह उसके हाथ से निकल कर नदी में जा गिरा, वह उसे पकड़ने दौड़ी तो स्वयं भी जल के प्रवाह में बह निकली। लड़के देखते के देखते ही रहगये, परन्तु बालक आत्माराम ने आव देखा न ताव भट नदी में छलांग लगादी और बड़े यत्न से दोनों मां बेटों को बचाकर बाहर ले आये । जिससे ग्राम तथा आस पास में उनके साहस की भूरि भूरि प्रशंसा होने लगी । लोगों की दृष्टि में आत्मारामजी का यह काम भलेही प्रशंसनीय और बड़ा हो परन्तु उनका विशाल हृदय तो इसे कुछ भी नहीं समझता था, क्योंकि उनके विकासगामी आत्मा ने भविष्य में लाखों जीवों को अज्ञान महासागर से उबार कर उन्हें मुक्तिपथ पर चलाने का साधन सुझाना यह भी तो उन्हें करना था जो कि समय पर उन्होंने अथक परिश्रम से सफलता पूर्वक किया और इसी उद्देश्य की ओर उनका कदम बालपन से युवावस्था में पदार्पण करते ही अग्रसर होने लगा । क्षत्रिय वीर पुत्र आत्माराम योधामल के परिवार में रहने के साथ ही साथ “अहिंसा परमो धर्मः" को जीवन का मूल मन्त्र मानने वाले धर्म की ओर आकर्षित होने लगे, जोधामल जी स्वयं धर्म प्रेमी व्यक्ति थे । स्थानकवासी जैन परम्परा के मन्तव्यानुसार संध्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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