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________________ रायकोट में कुछ दिन के नाम से कहे व माने जाते हैं । उनकी भावपूजा के लिये निर्माण की गई मूर्ति को हम अपने पास रखते हैं। जहां कहीं मन्दिर न होवे वहां हम उसका दर्शन करते हुए भगवान का स्मरण करते हैं-[एक साधु को इशारा किया और वह सिद्धचक्र ले आया] देखो यह सिद्धचक्र इसमें परमात्मा के साकार और निराकार दोनों स्वरूपों के प्रतीक हैं, इसमें अरिहन्त तो साकार ईश्वर है और जो विदेह मुक्त सिद्ध है वह निराकार निरंजन परमात्मा है । इस तरह "ॐ नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं” इस मंत्र के द्वारा हम प्रतिदिन इसको नमस्कार करते और इनके गुणों का स्तवन करते हैं । तब श्री रामचन्द्र जी को हम निराकार निरंजन सिद्धबुद्ध मुक्त परमात्मा के रूप में मानते हुए उसका प्रतिदिन भावपूजन करते हैं परन्तु तुमको जिस भाग्यशाली ने उलटा सीधा समझाकर हमारे विरुद्ध खड़ा करने की कोशिश की है तुम उससे जाकर पूछो और कहो कि पुजेरे साधु तो श्री रामचन्द्रजी को निराकार निरंजन सच्चिदानन्द पूर्णब्रह्म सिद्ध परमात्मा के नाम से मानते और नमस्कार करते हैं, परन्तु तुम-स्थानकवासी मानते हो कि नहीं ? यदि मानते हो तो उसका कोई सबूत दिखाओ ? आचार्य श्री के इस कथन को सुनकर वहां बैठे एक क्षत्रिय सद्गृहस्थ ने कहा महाराज ! जबकि ये लोग मूर्ति की उपासना से ही बहिष्कृत हैं अर्थात् मूर्ति को मानते ही नहीं तो ये सबूत क्या देंगे ? पहले तो हम लोग इन्हीं को ही जैन धर्म के प्रतीक समझते और मानते रहे परन्तु अब हमें पता चला है कि जैन धर्म का वास्तविक प्रतिनिधित्व किस में है । इतने में वहां पर एक स्थानकवासी भाई भी बैठा हुआ था और वह झंझलाकर उठा और कहने लगा कि यह आत्मारामजी तो क्षत्रिय हैं और इनका मुख्य शिष्य ब्राह्मण है । एक क्षत्रिय और दूसरा ब्राह्मण दोनों ने मिलकर ब्राह्मण और क्षत्रियों को जो अच्छा लगे ऐसा धर्म निकाल लिया। [ वाह क्या अच्छी सूझ है ] इस पर प्राचार्य श्री ने कहा कि भाई तुम्हारा कथन बहुत ठीक है- भगवान महावीर स्वामी क्षत्रिय और उनके मुख्य शिष्य गौतम स्वामी ब्राह्मण थे उन्होंने जो धर्म बतलाया और जिसकी संसार में प्ररूपणा की उसे हमने स्वीकार कर लिया और लौंका तथा लवजी के चलाये हुए मनगढंत इस ढूँढक पंथ को त्याग दिया । क्योंकि यह श्रमण भगवान महावीर की परम्परा से बहिष्कृत है । यह सुनकर वहां बैठा हुआ एक स्थानकवासी भाबड़ा कुछ चमक कर बोलने लगा तो वहां पर उपस्थित ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य लोगों ने उसे डपटते हुए कहा कि खबरदार मुँह संभाल कर बोलना हम अपने सामने इन गुरुजनों का अपमान नहीं सहेंगे । शायद तुम यह समझते होंगे कि इनका कोई सहायक इस वक्त नहीं है ! हम सब इन्हीं के हैं। इतना सुनते ही वह चुप हो गया और महाराज श्री ने सबको शांत करते हुए कहा कि भाई इसमें इस व्यक्ति का कोई कसूर नहीं यह तो दृष्टिराग का प्रभाव है। एक दिन वह भी था कि जब ये लोग इस शरीर के [ जब कि यह ढूंढक वेश में था] पांव की धूलि को अपने मस्तक पर चढ़ाते नहीं थकते थे। इसलिए ऐसा हो ही जाता है, आप लोग शांति रक्खें हम तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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