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अध्याय १०४ "रायकोट में कुछ दिन"
मालेरकोटला के चातुर्मास के बाद आप रायकोट पधारे । रायकोट में जीव पंथी और अजीव पंथी, दो प्रकार के स्थानकवासी-ढूंढिया-श्रोसवालों के घर हैं । तथा क्षत्रिय ब्राह्मण और अग्रवाल वैश्यों के भी काफी घर हैं। जब श्राचार्यश्री रायकोट में पधारे तो वहां के ढूंढियों ने श्रापको उतरने के लिये स्थान नहीं दिया, तब अमृतसर के श्रावक ला. जसवन्तराय दुग्गड़ के लिहाज से उसके श्वसुर ने अपनी दुकान पर उतारा दिया। आपका नाम तो विख्यात ही था अतः आपके आगमन की खबर पाकर जैनेतर-ब्राह्मण, क्षत्रिय
और वैश्य लोग आपके पास अधिक संख्या में आते और आपश्री के सदुपदेश को बड़े प्रेम से सुनते । जो कोई भी आपके सदुपदेश को सुनता वह दूसरे दिन अपने अन्य मित्रों को भी साथ लेकर आता । इस प्रकार आपके प्रवचन में जैनेतर जनता की बहुत संख्या बढ़गई । यह देखकर वहां के ढूंढकों की ईर्षा बढ़ी
और उन्होंने आने वाले श्रोताओं में से कई एक को आपके विरुद्ध उंधा सीधा समझाना शुरु कर दिया और कहा कि ये श्री रामचन्द्रजी महाराज को नहीं मानते और सनातन धर्म की निन्दा करते हैं इत्यादि २ । तब इनके बहकावे में आकर एक ने सबके सामने महाराजश्री से कहा-क्या महाराज ! आप श्री रामचन्द्रजी को नहीं मानते ?
भाई ! तुम्हारा यह प्रश्न तुम्हारा नहीं लगता, तुम्हारे इस प्रश्न के अन्दर तो तुम्हारी जबान में कोई दूसरा ही बोल रहा है। कहो ठीक है न ? महाराजश्री ने बड़ी निर्भयता से पूछा ।
प्रश्नकर्ता- हां महाराज ! बात तो ऐसी ही है परन्तु आप मेरे इस प्रश्न का उत्तर देने की कृपा तो अवश्य करें।
आचार्यश्री-जैनधर्म श्री रामचन्द्रजी को मोक्ष प्राप्त सिद्ध आत्मा अथच परमात्मा के नाम से मानता और पूजता है । अरिहंत-जीवनमुक्त सिद्ध-विदेहमुक्त ये दोनों ही साकार और निराकार परमात्मा
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