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अध्याय १०२
"ला० गोदामलजी क्षत्रिय का धर्मानुराग"
चातुर्मास में श्राप विशेषावश्यक सूत्र ( गणधर वाद ) और धर्मरत्न प्रकरण सटीक का व्याख्यान करते रहे । ला० गोन्दामल क्षत्रिय और भक्त जीवामल आदि कई एक भव्य जीवों को धर्म में लगाया।
___ एक दिन ला० गोन्दामल ने प्राचार्यश्री से कहा-महाराज ! मैं यहां हमेशा से ही ढूंढक साधुओं की कथा में जाता रहा और उनके मुख से बार बार यही सुनता रहा कि संवेगी साधु हमारी बहुत निन्दा करते हैं, परन्तु जब से आप यहां पधारे हैं मैं प्रतिदिन आपकी कथा सुनता हूँ. मैंने तो एक शब्द भी उनके विरुद्ध आपके मुखारविन्द से नहीं सुना । फिर मैं कैसे मानलं कि संवेगी साधु ढूंढियों की निन्दा करते हैं। यह सुनकर महाराजश्री ने फर्माया कि भाई गोन्दामल ! हमारे जैन शास्त्रों में तो ढूंढक मत का कहीं नाम तक भी नहीं, यह तो सोलवीं सदी में लौंकाशाह और अठारवीं सदी में होने वाले लवजी का चलाया हुआ पंथ है, पहले ने, मूर्ति का उत्थापन किया जब कि दूसरे ने मुंह पर पट्टी बान्धनी सिखाई, तब इन दोनों से बहुत प्राचीन समय के बने हुए जैन शास्त्रों में इनका नाम ही नहीं तो फिर इनकी निन्दा या स्तुति का तो प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। इस पर से ला० गोन्दामल की शुद्ध सनातन जैनधर्म पर और भी अधिक आस्था बढ़ी
और उसने आचार्यश्री से श्रावक के १२ व्रत अंगीकार किये तथा सम्वत्सरी का सबको अपने घर में पारणा कराया और श्री मन्दिरजी में पूजा तथा अंगरचना आदि का प्रबन्ध बड़े ठाठ से कराया, स्वयं प्रतिदिन प्रभु की सप्रेम पूजा करने लगा।
ला० गोन्दामल जी का यह धर्मानुराग पूज्य सोहनलालजी ढूंढक साधु को बहुत अखरा और मनमें काफी ठेस भी लगी। तब पूज्य सोहनलाल ने अपने किसी भक्त को ला• गोन्दामल के पास बुला भेजा, उसने ला मोन्दामल से आकर कहा लालाजी ! आपको पूज्यजी साहब याद करते हैं !
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