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________________ - ब्राह्मण युवक गुरु चरणों में % D इसी प्रकार गुण गुणी, धर्म धर्मी और वाच्य वाचक के विषय में भी इनका मतभेद है, नैयायिक इनको सर्वथा भिन्न मानते हैं जब कि सांख्य और वेदान्त मत में सर्वथा अभिन्न स्वीकार किया गया है। इसी विषय को लेकर वे दर्शन एक दूसरे के विरोधी बने हुए हैं। ___ इनके विरोध को शान्त करके इनको एक दूसरे के समीप लाने का श्रेय जैन दर्शन को है। कार्य कारण, गुण गुणी और वाच्य वाचक आदि में भेद अथच अभेद की मान्यता में रहे हुए सत्यांश को दृष्टि में रखते हुए इन दोनों को समाहित करके अपनी समन्वय-प्रधान उदार-दृष्टि में गर्भित करलेता है। उसकी व्यापक दृष्टि में कार्य कारण, गुण गुणी और वाच्य वाचक का आपस में भेद भी है और अभेद भी । अगर इनको सर्वथा भिन्न माना जाय तो इनका सम्बन्ध ही नहीं बन सकता है और सर्वथा अभिन्न मानने पर कार्यकारण व्यवहार लुप्त हो जावेगा इसलिये ये न तो एकान्त भिन्न हैं और न अभिन्न किन्तु कथंचित् भिन्न अथच अभिन्न हैं । इस प्रकार वस्तुतत्त्व के स्वरूप का सापेक्ष दृष्टि से किया गया अविरोधी निर्णय ही वस्तु स्वरूप के अनुरूप होने से उपादेय है। यही अनेकान्त दृष्टिप्रधान जैनदर्शन का रहस्य है। कृष्णचन्द -(हाथ जोड़कर) महाराज ! आज तो आपने मेरे ऊपर बड़ी ही कृपा की है ! अब मुझे जैनधर्म के पुनीत सिद्धान्तों में किसी प्रकार का भी सन्देह नहीं रहा। आपश्री मुझे यह आशीर्वाद देवें जिससे मैं इस लोकोत्तर धर्म को आचरण में लाने के लिये प्रयत्नशील बनें। कुछ क्षण चुप रहने के बाद फिर कहा-गुरुदेव ! मैंने आपके सम्पर्क में आने से पहले मूर्तिपूजकोंवास्तव में देवपूजकों या आदर्श पूजकों को पानी पी पी कर कोसा । उन्हें जड़ पूजक, पत्थर पूजक, बुद्धिहीन, महामूर्ख और स्वार्थी आदि न जाने किन किन अपशब्दों से सम्बोधित किया और उनके इस आचार को अनाचार और सरासर दम्भ एवं सर्वथाशास्त्र विरुद्ध कहकर भोले लोगों को देवपूजा के विरुद्ध उकसाने और बगावत करने की प्रेरणा दी । परन्तु आज आपश्री के सम्पर्क में आने के बाद मूर्तिपूजा के सम्बन्ध में मैंने जो सद्बोध प्राप्त किया और उसके रहस्य को समझा उससे मुझे अपने पिछले कर्तव्य पर बहुत ग्लानि आती है । बहुत पश्चाताप होता है । कृपया आप कोई प्रायश्चित्त बतलायें जिससे मेरा यह पाप धुल जावे । । आचार्यश्री-तुम जो पश्चाताप कर रहे हो यही इसका प्रायश्चित्त है, आगे को स्वयं श्रद्धापूर्वक देवपूजा करो और जनता को इसके रहस्य और महत्त्व को समझाने का प्रयास करो। बस यही तुम्हारे लिये समुचित प्रायश्चित्त है। कृष्णचन्द-बहुत अच्छा गुरुदेव ! आपकी आज्ञा का यथाशक्ति अवश्य पालन किया जावेगा, मगर सेवक को याद रखना भूलना नहीं, यही विनीत प्रार्थना है । इतना कहकर पंडित कृष्णचन्द्र ने गुरुचरणों का स्पर्श करते हुए वन्दना की और गुरु महाराज ने अपने वरद हस्त को उसके सिर पर फेरते हुए सप्रेम धर्म लाभ दिया, जिसे प्राप्त कर वह वहां से विदा हुआ । एक मास के बाद लुधियाने से विहार करके आचार्यश्री मालेरकोटला में पधारे और सं० १६४७ का चातुर्मास वहीं पर बिताया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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