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नवयुग निर्माता
देखने से तुम्हें वंचित रक्खा। तुमारे पृथक् २ रूप से अनुभव में आये हुए हाथी के अधूरे ज्ञानों को यदि आपस में मिला दिया जाय तो तुम्हारा झगड़ा भी निवट जाता और तुम्हें हाथी के स्वरूप का भी ज्ञान हो जाता । इसी प्रकार केवल एकांशावगाहिनी एकान्तदृष्टि से अवलोकन किये गये पदार्थ के आंशिक स्वरूप को सर्वांश रूप में सत्य मानने वाले दर्शनों में परस्पर विरोधी भावना को जन्म मिलता है, एक कहता है मैंने पदार्थ का जो स्वरूप निश्चित किया है वही सत्य है । दूसरे का कथन है कि नहीं ऐसा नहीं, पदार्थ का स्वरूप जैसा मैंने देखा है वही इदमित्थ है। परन्तु वास्तव में विचार किया जावे तो उनके कथन में आंशिक सत्यता तो है मगर वह सर्वांश सत्य नहीं । कारण कि वस्तु में अनेक धर्म हैं उनमें से किसी एक धर्म को दृष्टि में रखकर वस्तु के स्वरूप का निर्वचन अपेक्षा कृत सत्य है, निरपेक्ष सत्य नहीं । इसलिये जैन दर्शन ने अपनी अनेकांशावगाहिनी व्यापक दृष्टि से पदार्थ के स्वरूप का जो निर्वचन किया, उसी को लक्ष्य में रखकर पदार्थों के स्वरूप का निश्चय करना चाहिये । पदार्थ के स्वरूप को देखते हुए वह केवल न तो सत् है
और न ही असत् , एवं न केवल नित्य अथच अनित्य किन्तु सदसत् और नित्यानित्य उभयस्वरूप है। उसमें अपेक्षाकृत दोनों धर्मों का अस्तित्व है। इसी सिद्धान्त को लेकर जैन दर्शन ने पदार्थ मात्र को उत्पन्न होने वाला नाश होने वाला और स्थिर रहने वाला मानने का आग्रह किया है। उदाहरणार्थ एक सुवर्ण पिंड को ले लीजिये उसे गलाकर प्रथम कड़ा बनाया फिर कड़े को तोड़कर उसके कुण्डल बनालिये, तब प्रथम कटक रूप में सुवर्ण की उत्पत्ति हुई तदनन्तर कुण्डल बनाते समय कटक का विनाश हुआ परन्तु इस उत्पत्ति और विनाश के सिलसिले में सुवर्ण द्रव्य कायम ही रहा । फलितार्थ यह हुआ कि कटक और कुण्डल ये दोनों सुवर्ण रूप द्रव्य के पर्याय तो उत्पत्ति और विनाश धर्म वाले हैं और सुवर्ण अविनाशी द्रव्य है, इससे स्वर्ण में होने वाले विभिन्न पर्यायों परिवर्तनों को देखते हुए तो उसे अनित्य मानेंगे और उन परिवर्तनों के आधार स्वरूप स्वर्ण द्रव्य को नित्य कहेंगे । अतः पर्याय दृष्टि से वस्तु अनित्य और द्रव्य दृष्टि से नित्य होने से वह अपेक्षाकृत नित्यानित्य उभय स्वरूप ही मानी जायगी । इसी प्रकार कटक कुण्डलादि आपस में न तो सर्वथा एक दूसरे भिन्न हैं और न सर्वथा अभिन्न किन्तु कथचित् भिन्न अथच अभिन्न उभयरूप हैं।
जैसा कि हमने पहले बतलाया कि जैन दर्शन समन्वय दृष्टि प्रधान दर्शन है वह किसी दर्शन के मन्तव्य को ठुकराता नहीं किन्तु अधिक रूप में वह उसे अपने समीप लाकर उसे सन्तुष्ट करने का प्रयत्न करता है और एक सच्चे न्यायाधीश की भांति अन्य दर्शनों के आपसी विरोध को मिटाने का कोशिश करता है।
न्याय दर्शन भेदवादी है, वह कार्य और कारण का आपस में अत्यन्त भेद मानता है जब कि सांख्य और वेदान्त दोनों अमेदवादी हैं, अर्थात् ये दोनों कार्य कारण को सर्वथा अभिन्न मानते हैं,
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