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महाशय लेखराम का समागम
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या ईश्वर सृष्टि कर्तृत्ववाद का निषेध नास्तिकता में हेतु नहीं,नास्तिकता का समर्थक तो अनात्मवाद है। ये दोनों दर्शन अनात्मवाद के विरोधी और आत्मवाद के समर्थक हैं इसलिये आस्तिक हैं और होने चाहिये। अब वेदान्त दर्शन को लीजिये, यह ब्रह्म की परमार्थ सत्ता से अतिरिक्त और किसी वस्तु की स्वतन्त्र सत्ता को ही नहीं मानता । उसके मत में तो जीवत्व और ईश्वरत्व ये दोनों ही मायाकल्पित हैं। "मायाभासेन जीवेशौ करोति" अर्थात् सत्वगुण प्रधान माया विशिष्ट चेतन का नाम ईश्वर और तमोगुण प्रधान अविद्याजन्य उपाधिविशिष्ट का नाम जीव है। यह दर्शन भी न्यायदर्शन-सम्मत ईश्वर के सृष्टिकर्तृत्ववाद का विरोधी है। और स्वयं ब्रह्म को ही जगत का अभिन्ननिमित्तोपादान कारण बतलाता है। आप कभी ब्रह्म सूत्र के शांकर भाष्य को देखें तो उसके द्वितीय अध्याय में सृष्टि की उत्पत्ति के लिए भिन्न भिन्न रूप से निरूपण करने वाली श्रुतियों का उल्लेख करके उनके परस्पर विरोध का निर्देश करते हुए यह लिखा है कि वास्तव में तो जगत् कल्पना मात्र ही है इसलिये किसी ने किसी प्रकार से उत्पत्ति की कल्पना करली और किसी ने अन्य प्रकार से करली। इत्यादि । इस कथन का तात्पर्य यह है कि जो लोग एकेश्वरवादी या एकात्मवादी हैं उनमें भी
ज्ञाता च कस्तदा तस्य यो जनान् बोधयिष्यति । उपलब्धेर्विना चैतत् कथमध्यवसीयताम् ।। प्रवृत्तिः कथमाद्या च जगतः संप्रतीयते । शरीरादेविनाचास्य कथमिच्छापि सर्जने ।। शरीराद्यथ तस्य स्यात् । तस्योत्पत्तिर्न तत्कृता। तद्वदन्यप्रसंगोपि नित्यं यदि तदिष्यते । पृथिव्यादावनुत्पन्ने किम्मयं तत् पुनर्भवेत् । प्राणिनोप्रायदुःखाच x सिसृक्षास्य न विद्यते। साधनं चास्य धर्मादि तदाकिंचिन्न विद्यते । नच निस्साधनः कर्ता कश्चित् सृजति किंचन ।। नाधारेण विना सृष्टि । रूर्णनाभेरपीष्यते । प्राणिनां भक्षणाच्चापि तस्य लाला प्रवर्तते ।। अभावाच्चानुकम्प्यानां नानुकम्पास्य जायते। सृजेच्च शुभमेवैक-मनुकम्पा प्रयोजितः ।। तथा चापेक्षमाणस्य स्वातंत्र्यं प्रतिहन्यते । जगच्चासृजतस्तस्य किनामेष्टं न सिध्यति ?॥
क्रीडार्थायां प्रवृत्तीच विहन्येत कृतार्थता । इत्यादि० + ईश्वर शरीरस्य, तत्-ईश्वर शरीरम् , x दु:ख बहुला, " ऊर्णनाभे: * अस्य-ईश्वरस्य, $ जीवकर्मापेक्षायाम् ।
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