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________________ ३५२ नवयुग निर्माता स्वरूप का जैन दर्शन ने विवरण किया है। तब जो दर्शन आत्मवाद की प्ररूपणा में अग्रसर है वह आस्तिक है फिर चाहे वह वेदोपजीवी हो या वेदबाह्य हो । ईश्वर को सृष्टिकर्ता मानता हो अथवा उसका निषेधक हो । इसी प्रकार वह आत्मा से सर्वथा स्वतन्त्र एक ईश्वर को मानने वाला हो अथवा पूर्ण विकास को प्राप्त हुए आत्मा का ही परमात्म पद से निर्देश करने वाला हो तथा एकात्मवादी या अनेकात्मवाद का समर्थक हो, सभी आस्तिक हैं । सभी ईश्वरवादीय परमात्मवादी हैं । और जो आत्मा के अस्तित्व से इनकारी है अर्थात् केवल शरीर को ही श्रात्मा मानकर उसमें व्यक्त होने वाली चेतन सत्ता को शरीर का ही धर्म मानता है वह नास्तिक है, अनात्मवादी अथच अनीश्वरवादी है । अनीश्वरवाद का अर्थ होता है - "नास्ति ईश्वरः इति वादः अनीश्वर वादः" अर्थात् ईश्वर नहीं है ऐसी धारणा का नाम अनीश्वरवाद है परन्तु इस अर्थ से न्याय और वैशेषिक सम्मत एकेश्वरवाद और उसके सृष्टि कर्तृत्व का निषेध फलित होता है न कि ईश्वरत्व या परमात्म तत्त्व का भी। कर्मकाण्ड प्रधान पूर्व मीमांसा दर्शन और ज्ञान प्रधान सांख्यदर्शन दोनों आत्मवाद के समर्थक और एकेश्वरवाद तथा उसके सृष्टि कर्तृत्ववाद के पूर्ण विरोधी हैं । सांख्यदर्शन ईश्वर निरपेक्ष केवल प्रधान प्रकृति को ही सृष्टि का निर्माता मानता है और उसके मत में विवेक ख्याति प्राप्त अर्थात प्रकृति के गुणों से सर्वथा रहित हुआ मुक्त आत्मा ही परमात्मा है उससे भिन्न वह और किसी स्वतन्त्र ईश्वर की कल्पना को अपने दर्शन में स्थान नहीं देता । महाभारतकार भी इसी सिद्धान्त का समर्थन करते हैं यथा आत्मा क्षेत्रज्ञ इत्युक्तः संयुक्तः प्राकृतैर्गणैः । तेरेव तु निमुक्तः परमात्मत्यभिधीयते ॥ अब लो, मीमांसा दर्शन की बात ! कर्मकाण्डप्रधान वेदमत के पूर्णप्रचारक स्वनाम धन्य श्री कुमारिल भट्ट ने ईश्वर के अस्तित्व और उसके सृष्टिकर्तृत्व का जिन तीव्र शब्दों में प्रतिवाद किया है, उतना तो जैन दर्शन के समर्थ विद्वानों ने भी सृष्टिकतृत्ववाद की आलोचना करते हुए नहीं किया । कुमारिल भट्ट ने वेदों के अपौरुषेयत्व का समर्थन करते हुए सृष्टि को प्रवाह से नित्य मानकर ईश्वरादि को सृष्टिकर्ता मानने वालों की बड़े तीव्र शब्दों में कालो बना की है । परन्तु किसी ने भी अज तक सांख्य और मीमांसा दर्शन को नास्तिक नहीं कहा इससे प्रतीत होता है, कि अनीश्वरवाद शब्द से फलित होने वाला एकेश्वरवाद * श्लोक वार्तिक में सृष्टि कर्तृत्ववाद की आलोचना करते हुए घे ( महामति कुमारिल भट्ट ) लिखते हैं - यदा सर्वमिदं नासीत. कावस्था तत्र गम्यताम् । प्रजापते: ह्यवास्थानं, किं रूपं च प्रतीयताम् ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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