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________________ ३५४ नवयुग निर्माता एक मत नहीं । उनका सृष्टि कर्तृत्व भी विभिन्न प्रकार का ही है और आत्मा के स्वरूप के विषय में भी सबके भिन्न २ विचार है। आपके स्वामीजी के विचार तो सभी दर्शनों से भिन्न हैं। वे प्रकृति जीव और ईश्वर इन तीन पदार्थों को अनादि और सर्वथा स्वतन्त्र मानते हैं। उनके मत में प्रकृति सत, जीव सत-चित् और ईश्वर सत्-चित्-आनन्द स्वरूप है । बिचारे जीव को तो कभी आनन्द की उपलब्धि होनी ही नहीं क्योंकि उसका मूल स्वरूप आनन्द से सदा शून्य है ! अस्तु । न्याय दर्शन और वैशेषिक दर्शन ईश्वर और जीवात्मा को सर्वथा भिन्न मानता हुआ भी दोनों को व्यापक मानता है [विभवान महान आकाशस्तथाचात्मा "तदभावादणु मनः" [२] जब कि आपके स्वामीजी आत्मा को अणु मानते हैं, सांख्य वेदान्त और पूर्व मीमांसा आदि दर्शन आत्मा को विभु मानते हैं, वेदान्त एकात्मवादी है और सांख्यादि अनेकात्मवाद की स्थापना करते हैं परन्तु आत्मा को व्यापक सभी ने स्वीकार किया है। जैन दर्शन अनेकात्मवादी है उसके मत में प्रति शरीर भिन्न २ आत्मा है शक्ति रूप से सब समान और व्यक्ति रूप से सब पृथक २ हैं। जैनमत में आत्मा न तो व्यापक है और न अणु किन्तु असंख्यात प्रदेशी संकोच विकासशाली मध्यम परिणाम वाला है वह हस्ती के शरीर में हस्ती के आकार जितना और मशक (मच्छर) के शरीर में मशक जितना हो जाता है "अणोरणीयान् महतो महीयान्" अर्थात् यह आत्मा अणु से भी अणु और बडे से भी बड़ा है । यह श्रुति सम्भवतः इसी सिद्धान्त की समर्थक है। जैन दर्शन के सिद्धान्तानुसार प्रत्येकात्मा ज्ञानादि अनन्त शक्तियों का भंडार है, परन्तु उसकी ये शक्तिये कर्मों के आवरण से आवृत्त होरही हैं। उनमें से जो आत्मा इस देव दुर्लभ मानव-भव को प्राप्त करके अध्यात्म मार्ग का अनुसरण करता हुआ उपयुक्त साधनों के द्वारा आत्म शक्तियों को प्रावृत करने वाले कर्मों की निर्जरा करता हुआ अपनी आन्तरिक शक्तियों को पूर्ण विकास में ले आता है वह सर्वज्ञ सर्वदर्शी पूर्ण आत्मा, परमात्मा या ईश्वर कहलाता है। उसी परमात्मपद की प्राप्ति के लिये जैन दर्शन ने परमात्मा के साकार और निराकार रूप की उपासना का विधान किया है। जैनधर्म में परमात्मा के स्वरूप का वर्णन करते हुए आचार्यों ने जो स्तुति की है उस पर से जैन दर्शन में अभिमत परमात्मा का स्वरूप और भी स्फुट होजाता है। यथा-वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांस ____ मादित्यवर्णम मलं तमसः परस्तात् । त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्यु नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र पन्था ॥१॥ स्वामव्ययं विभुमचिन्त्यमसंख्यमाद्य, ब्रह्माणमीश्वरमनन्तमनंगकेतुम् । योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं, ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ॥२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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