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________________ अध्याय १०० "महाशय लेखराम का समागम" शाहाबाद से विहार करके महाराज श्री अम्बाले में पधारे । अम्बाला के श्रीसंघ ने आपश्री का भव्य स्वागत किया और कई वर्षों के बाद पंजाब में आचार्य देव पधार रहे हैं, इसलिये पंजाब के दूसरे शहरों ने भी आपके स्वागत में बढ़चढ़ कर भाग लिया । अभी आचार्यश्री को अम्बाला पधारे एक दो दिन ही हुए थे कि गणेशी और गोविन्दलाल नाम के दो ढ़क साधु अपने टोले के दूसरे साधुओं से लड़ झगड़ कर आचार्यश्री के पास आये और दोनों ने शुद्ध सनातन जैन धर्म की मुनि दीक्षा अंगीकार कराने की प्राचार्यश्री से आग्रहभरी विनति की । महाराजश्री ने उनको सिर से पैर तक देखा और कुछ क्षण चुप रहने के बाद उनसे कहा कि यदि तुम्हारा भाव संवेग मत की दीक्षा ग्रहण करने का है तो कम से कम ६ मास तक तुम इसी वेष में हमारे साथ रहो और हमारी परम्परा में साधु की जो क्रिया है उसका अभ्यास करो। पीछे किसी योग्य समय पर तुमको दीक्षा भी देदी जावेगी । महाराजश्री के कथन को सुनकर वे दोनों कुछ निराश से होगये, अन्त में कई एक श्रावकों और साधुओं के आग्रह से इच्छा न रहते हुए भी श्राचार्यश्री ने उन्हें दीक्षा देदी, परन्तु यह कह दिया कि यह दीक्षा तुम लोगों के आग्रह से दी जा रही है मेरी अभी इच्छा नहीं थी। कुछ दिनों बाद दोनों ही भ्रष्ट होगये, वेष छोड़कर चले गये तब आग्रह करने वाले साधु और श्रावकों को आचार्यश्री का कथन याद आया, सच है-"बड़े पुरुषों के कथन और आमले के भक्षण का पीछे ही स्वाद आता है" अस्तु, महाराजश्री को पधारे अभी लगभग एक सप्ताह गुजरा होगा कि आर्य समाज के सुप्रसिद्ध कार्यकर्ता पंडित लेखराम जी-[ जिनको बाद में एक जनूनी मुसलमान ने मार डाला था] उनके दर्शनार्थ पधारे । महाराजश्री के नाम से पंडित लेखराम और पंडित लेखरामजी के नाम से महाराजश्री पहले परिचित थे । परन्तु आज से पहले दोनों महानुभावों का आपस में साक्षात्कार नहीं हुआ था। इसलिये जैन धर्म और आर्यसमाज के इन दोनों महारथियों का आज का यह मिलाप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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