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नवयुग निर्माता
जिसको पूरी कड़ाह से उक्ताये हुए साधुओं ने बड़ी रुचि से खाया - देकर बिदा किया, मगर मुझसे चोरी मेरे घर वाली ने एक दमड़ा उनकी झोली में डाल ही दिया। ऐसी भावुकता को बार २ नमस्कार ।
मंडली कल जाने वाली थी कि इतने में बाहर से महन्तजी के नाम किसी का पत्र आया, पत्र में लिखा था कि महाराज ! जिस बैंक में आपका बीस हजार रुपया जमा था वह टूट गया। अब रुपया मिलने की कोई आशा नहीं, अगर मिला भी तो दो तीन साल के बाद रुपये में सिर्फ दो आने मिलने की संभावना है।
पत्र को पढ़ते ही महन्तजी तो वहां गद्दी पर ही लेट गये । दूसरे साधु झट दौड़े आये, किसी ने पानी छिड़का, किसी ने पंखा किया, आखिर को एक वैद्य को बुलाया गया, बहुत से स्त्री पुरुष जमा होगये, वैद्य ने आकर देखा तो नाड़ी शान्त हो चुकी थी और स्वामीजी के प्राण पखेरू उनके शरीर को त्याग चुके थे । अन्त में दूसरे दिन चलने के समय महन्तजी का दाहसंस्कार वहीं पर किया गया । महन्तजी गद्दी पर ऐसे लेटे कि फिर उठ न सके गांव में काफी दिनों तक इस बात की चर्चा चलती रही ।
इतना सुनाने के बाद पंडितजी ने कहा - महाराज ! यह भी मेरे किसी पुण्य का उदय था, जो मार्ग में मुझे आप जैसे त्यागशील तपस्वी और विद्वान महापुरुष के दर्शन होगये । महाराज ! मैं अधिक पढ़ा लिखा तो नहीं मगर नीति का एक श्लोक मुझे इस वक्त याद आता है जिसमें लिखा है।
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शैले शैलेन माणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे ।
साधवो नहि सर्वत्र चंदनं न बने बने ॥ १ ॥
इसलिये संसार में आप जैसे महापुरुष विरले ही देखने में आते हैं । इतना वार्तालाप होने के बाद सब चल पड़े चलते वक्त महाराजश्री ने फर्माया कि पंडितजी ! यह सब ममत्व की ही करामात है । इसलिये सर्वप्रथम साधु को सांसारिक पदार्थों पर से ममता का परित्याग करना चाहिये । अन्यथा संसारी और साधु में सिवाय भेष के और कोई अन्तर नहीं । जब वहां से सब साधुओं ने प्रस्थान किया तो पंडितजी महाराजश्री के साथ घोड़े की लगाम थामे पैदल ही चलते रहे। रास्ते में जहां उनके ग्राम को मार्ग फटता था वहां से वह गुरुदेव तथा अन्य साधुओं को प्रणाम करके अपने ग्राम को हो लिये ।
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