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________________ एक पंडित से भेट ३४७ महाराजश्री-सुनाओ भाई ! हम थोड़ी देर और विश्राम कर लेते हैं । पंडितजी-महाराज ! लगभग आठ साल हुए मेरे गांव में एक सन्तों की मंडली आई । सब मिलकर १८ साधु थे, एक महन्त और १७ बाकी के साधु । वे गरीबदास पंथ के अनुयायी थे । लोग उन्हें गरीबदासिये कहकर पुकारते । महन्त संस्कृत तो नहीं जानता था, परन्तु वेदान्त के 'विचार सागर' और 'वृत्ति प्रभाकर' आदि भाषा ग्रन्थों का अच्छा जानकार था और कथा करने का ढंग अच्छा था। प्राम में आकर वे बाहर एक पुरानी कोठी में ठहर गये, आने के दूसरे दिन महन्तजी ने भाषा के 'आत्म पुराण' की कथा शुरु करदी । ग्राम के स्त्री पुरुष कथा सुनने जाते और उनमें से एक आदमी उन्हें अपने घर में भोजन करने का निमंत्रण दे आता, भोजन के समय सब साधुओं को साथ लेकर महन्तजी गृहस्थ के घर में पधारते । जब डेरे से चलते तो एक साधु सबसे आगे नरसिंघा बजाता हुआ चलता उसके पीछे महन्त और पीछे सब साधु चलते। गृहस्थ अपनी यथाशक्ति पूरी हलवा आदि बनाता और सबको प्रेम पूर्वक जिमाता । अन्त में चलते समय एक कपड़ा और कुछ रुपये महन्तजी की भेट करता । जिसे महन्तजी के साथ का साधु उठा लेता । इसी प्रकार प्रतिदिन किसी न किसी गृहस्थ के घर उनको निमंत्रण होता, जिस गृहस्थ के घर उन्हें दिन को निमन्त्रण होता वही गृहस्थ रात का भोजन उनके डेरे पर पहुंचा देता, वे वहां पर ही उसका भोग लगा लेते। जैसा कि मैंने पहले अर्ज किया महन्तजी संस्कृत के तो विद्वान् नहीं थे, परन्तु उनका कथा कहने का ढंग अच्छा था, कथा बड़ी रोचक और सबके समझ में आजावे ऐसे अनेक कल्पित दृष्टान्तों से भरी रहती । मैं भी कभी २ उनकी कथा में जाया करता था परन्तु मेरी घरवाली तो महल्ले की स्त्रियों के साथ रोज़ ही नियम से कथा सुनने जाती । एक दिन मेरी घरवाली ने मुझसे कहा कि पंडितजी ! सुना है परसों को मंडली चली जावेगी। मैंने कहा-तो फिर इसमें कौनसी बात है ? जो आता है उसको एक न एक दिन जाना ही पड़ता है, मंडली आई और चली जावेगी। आप तो उपहास्य में साधुओं की बात उड़ाये देते हैं, मैंने तो किसी और आशय से कहा था, उसने बड़ी गंभीरता से कहा । तब मैंने कहा कहो क्या चाहती हो ? यही कि एक दिन अपने भी मंडली को भोजन करा देते, उसने बड़ी उत्सुकता से उत्तर दिया । तब मैंने उसके भोलेपन पर तरस खाते हुए कहा कि मेरा विचार तो नहीं है, मैं तो इनकी अपेक्षा किसी गरीब गुरबे को खिला देना अच्छा समझता हूँ , परन्तु तुम्हारी इच्छा को रोकना भी नहीं चाहता मगर एक शर्त है तुम जैसा भोजन नित्य प्रति अपने घर में बनाती हो वैसा ही बनाकर खिलादो । हलवा पूरी वगैरह का काम मुश्किल है । इसके सिवा एक शर्त और है-किसी प्रकार की भेट नहीं देनी होगी. हमारे शास्त्रों में तो लिखा है कि जो कोई व्यक्ति सन्यासी को धन देता है वह नरक में जाता है । इसलिये भोजन की तो मैं मनाही नहीं करता मगर भेट पूजा मुझसे नहीं बन पड़ेगी। दूसरे दिन सादा भोजन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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