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________________ ३४६ नवयुग निर्माता अकिंचन कहा है । जो लोग साधु वेष धारण करके पास में द्रव्य रखते और अपनी रिहायश के लिये मकान वगैरह बनाते एवं अन्य कई प्रकार का परिग्रह पास रखते हैं, वे साधु भले ही कहावें परन्तु शास्त्र उनके लिये ऐसी आज्ञा नहीं देता। यति या सन्यासी के लिये द्रव्य या किसी प्रकार की अन्य स्थावर सम्पत्ति को अपने अधिकार में रखने की जैन या वैदिक परम्परा के किसी भी शास्त्र में आज्ञा दी हो ऐसा हमारे देखने में तो आया नहीं । दूर जाने की आवश्यकता नहीं अापने भगवद्गीता देखी ही होगी उसमें सन्यासी के लिये - "त्यक्तसर्वपरिग्रहः"+ ''सर्वारम्भपरित्यागी" और "अनिकेतः स्थिरमति: ऐसे विशेषण दिये हैं इनका अर्थ स्पष्ट है, अर्थात् जो किसी प्रकार का परिग्रह नहीं रखता, सर्व प्रकार के प्रारम्भ का जिसने परित्याग कर दिया है और जो अनिकेतः घर से रहित अर्थात् जिसने कोई मकान वगैरह नहीं बनाया, वह यति या सन्यासी है। इसलिये पंडितजी हम लोग न तो कोई सवारी करते हैं, न पैसा पास रखते हैं, और न ही हमारा कोई घर है । हम लोग भिक्षा मांगकर उदरपूर्ति करते और गृहस्थों के मकान में उनकी आज्ञा से कुछ समय के लिये ठहर जाते हैं। आपने रेल की सवारी का ज़िकर किया सो यदि हम रेल की सवारी करने लग जावें तो हमारी साधुवृत्ति ही सर्वथा लुप्त हो जाती है। रेल की सवारी के लिये सर्व प्रथम इमको पैसा पास में रखना होगा, उसके लिये गृहस्थों की गुलामी करनी होगी। फिर रेल में स्त्री पुरुष सभी बैठते हैं और हम स्त्री का स्पर्श नहीं करते । रेल में आग और पानी का उपयोग होता है, हम लोग उनमें एकेन्द्रिय जीवों का अस्तित्व मानते हैं। साधु के लिये सर्व प्रकार की जीव हिंसा का परित्याग है, तात्पर्य की यदि कुछ थोड़ी सी गम्भीर दृष्टि से अवलोकन किया जाय तो रेल यात्रा में हमारे जैसे त्याग प्रधान वृत्ति का आचरण करने वाले साधु के लिये सिवाय अनर्थ सम्पादन के और कुछ भी लाभ नहीं। अतः पैदल चलना, शरीर स्थिति के निमित्त भिक्षा वृत्ति द्वारा उदरपूर्ति करना, चातुर्मास के अतिरिक्त कहीं पर अधिक न ठहरना और आत्म चिन्तन में मग्न रहते हुए संसारी जीवों को धर्म का उपदेश देना, यही हमारी साधु वृत्ति की मर्यादा है। पंडितजी-महाराज ! आप धन्य हैं आप जैसे त्यागी और तपस्वियों के सहारे ही यह पृथिवी स्थिर है । हमारे मत के साधुओं की तो बात ही मत पूछिये, लाखों रुपये बैंकों में जमा हैं बड़े २ आलीशान मकान और कोठियां बनी हुई हैं, हजारों रुपये का फर्नीचर लगा हुआ है, बिजली और बिजली के पंखे चल रहे हैं, हर प्रकार की भोग विलास की सामग्री उपस्थित रहती है, नौकर चाकर सेवा के लिये तैयार रहते हैं, फिर भी ये सन्यासी, त्यागी अथच महापुरुष कहलाते हैं और कथा व्याख्यानादि में त्याग वैराग्य एवं संसार के विषय भोगों से उपराम रहने के सिवा और कोई उपदेश नहीं देते। फिर बोले -महाराज ! यदि आपको जल्दी न हो तो मैं आपको अपने गांव का एक आंखों देखा वृत्तान्त सुनाऊँ ? + ४/२१ x १२।१६ *१२११६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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