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अध्याय ६६ "एक पंडित से मेट"
शाहाबाद से जब आप शिष्य वर्ग के साथ अम्बाला की ओर प्रस्थान कर रहे थे, तो रास्ते में एक घुड़सवार पंडित से आपकी भेट होगई । पंडित ने आपको देखकर आपकी मुख-मुद्रा से प्रभावित होते हुए घोड़े से उतर कर आपको नमस्कार किया और आपने उत्तर में धर्मलाभ कहा।
महाराज ! आप वृद्ध हैं, शरीर भी आपका स्थूल है आप थक गये होंगे ? अतः आप मेरे इस घोड़े पर सवार होजाइये ? मैं आपके साथ पैदल चलँगा, पंडितजी ने सहज नम्रता से प्रार्थना की।
नहीं पंडितजी ! हम घोड़े पर नही चढेंगे, कारण कि हम किसी प्रकार की सवारी नहीं करते, हम सदा पैदल ही भ्रमण करते हैं और पैदल ही सब जगह जाते आते हैं।
पडितजी-तो क्या महाराज ! आप रेल की सवारी भी नहीं करते ?
आचार्य श्री-नही पंडितजी ! कभी नहीं करते।
पडितजी-महाराज ! घोड़ा, घोडागाड़ी या बैलगाड़ी आदि की सवारी न करने का तो कुछ कारण हो सकता है, क्योंकि आप साधु हैं, किसी को कष्ट पहुंचाना आपका धर्म नहीं । परन्तु रेल की सवारी में तो कोई आपत्ति दिखाई नहीं देती।
आचार्य श्री-पंडितजी ! रेल की सवारी तो साधु के लिये और भी अधिक हानिकारक है। रेल में सवार होने के लिये सबसे पहले टिकट की जरूरत पड़ती है, टिकट बिना पैसे के मिलता नहीं,
और हम पैसा पास रखते नहीं। फिर रेल की सवारी कैसे करें ? अगर पैसा पास रखें तो फिर साधु कैसे ? साधु और गृहस्थ की दो ही बातों में पहिचान होती है, दौलत और औरत ये दो चिन्ह गृहस्थ के हैं, इन दोनों का जिसने मन वचन और काया से परित्याग कर दिया है. वह साधु है । गृहस्थ अमुक घर का मालिक होता है जबकि साधु का कोई नियत स्थान नहीं होता । इसीलिये शास्त्रों में उसे अनगार अथच
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