________________
अध्याय ६८
"शिष्य रत्न का त्रियोग"
दिल्ली आने के बाद आपको एक बड़े भारी अनिष्ट संयोग और इष्ट वियोग का सामना हुआ । पके स्थानकवासी समय के सहचारी और पूर्ण सहयोग देने वाले आपके प्रशिष्य रत्न श्री हर्षविजयजी हाराज का सदा के लिये वियोग हो गया । सं० १६४६ चैत्र कृष्णा दशमी के रोज उनका स्वर्गवास हो गया । भाव की अमिता का सतत चिन्तन और अनुभव करने वाले आपश्री के मानस पर कुछ प्रभाव तो , परन्तु उतना ही जितना जल में खैंची गई लकीर से जल में विभिन्नता का अनुभव होता है ।
दिल्ली से बिहार कर के बडौत, विनौली और शाहाबाद होकर आप अम्बाले में पधारे ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org