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________________ ३५० नवयुग निर्माता अपने अन्दर एक महत्वपूर्ण स्थान रखता था । पं० लेखरामजी ने आते ही महाराज श्री को नमस्ते कही और उत्तर में आचार्य श्री ने धर्म लाभ दिया । उपाश्रय में उपस्थित श्रावकों ने पंडितजी को आसन दिया वे महाराजजी साहब के सन्मुख आसन पर बैठ गये । स्वामीजी ! आपका नाम तो बहुत दिनों से सुन रखा और कई एक मित्रों से आपकी विद्वत्ता और प्रतिभा तथा आचार-सम्पत्ति की प्रशंसा भी सुनी थी, काफी अरसे से आपके दर्शनों की मनमें इच्छा बनी हुई थी सो आज ईश्वर की कृपा से आपका दर्शन प्राप्त हुआ जो कि मेरे लिये बड़े गौरव की बात है । पंडितजी ने यह सहज शिष्टाचार के नाते आचार्यश्री से कहा । आचार्य श्री - पंडितजी ! मुझे भी आपके साक्षात्कार की बहुत दिनों से उत्कंठा थी, आपका नाम और ख्याती बहुत दिनों से सुन रक्खी थी। सनातनधर्म और विशेषकर इस्लाम मत के मौलवियों के साथ होने वाले आपके शास्त्रार्थों 'आर्य जगत में आपके नाम को विशेष प्रसिद्ध कर दिया। ऐसे सज्जन पुरुष के मिलाप को मैं भी सद्भाग्य प्रेरित ही अनुभव करता हूँ । इतना शिष्टाचाररूप संभाषण होजाने के बाद पंडित लेखरामजी ने आचार्यश्री से कहास्वामीजी ! कुछ पूछने की इच्छा है यदि आज्ञा हो तो पूलूँ । आचार्य श्री — आप स्वयं पंडित हैं और साथ में शास्त्रार्थ महारथी भी हैं, इसलिये आप जो कुछ पूछेंगे वह महत्वपूर्ण सारगर्भित और लाभप्रद ही होगा इस दृष्टि को सम्मुख रखते हुए मेरी तरफ से आपको खुली छुट्टी है, आपको जो पूछना हो पूछें। मैं अपनी शक्ति के अनुसार उसका यथार्थ उत्तर देने का भरसक प्रयत्न करूंगा, परन्तु मेरा वह उत्तर आपके लिये सन्तोषजनक होगा कि नहीं, यह मैं नहीं जानता । पंडितजी - महाराज ! आर्यसमाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द सरस्वतीजी ने जैनमत को ववादी और नास्तिक कहा है, इस विषय में आपका क्या विचार है यह मैं जानना चाहता हूँ । क्षमा करना यह प्रश्न मैंने किसी वाद विवाद की भावना से नहीं, किन्तु तथ्य गवेषणा की दृष्टि से किया है । मैंने जैन दर्शन का अभ्यास नहीं किया और न ही मुझे इस मत के ग्रन्थों के अवलोकन का समय ही मिला | श्री स्वामीजी ने उसके सम्बन्ध में जो कुछ लिखा है, वह कहां तक ठीक है उसका यथार्थ निर्णय तो वही कर सकता है, जिसको दोनों तरफ का पूरा ज्ञान हो। अभी तक तो मैं श्रद्धा की दृष्टि से कहिये, अथवा स्वमतानुराग समझिये - स्वामीजी के कथन को ही ठीक समझता रहा हूँ परन्तु आप जैसे जैनधर्म के ज्ञाता पुरुष का सहयोग प्राप्त हुआ है, इससे यदि उक्त विषय का स्पष्टीकरण हो जावे तो बहुत अच्छा है । आचार्य श्री - पंडितजी ! आपके स्वामीजी ने जैनधर्म के सम्बन्ध में क्या कहा ? क्या नहीं कह | ? इस विषय को तो अलग रखिये उस पर विचार करने का न तो यह अवसर है और न ही उस पर विचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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