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________________ - छगन की दीक्षा का पूर्व इतिवृत्त ३२५ कोई और महूर्त निकालें जिससे सारा काम अच्छी तरह से हो सके। खीमचन्द भाई की बात सुन कर हँसते २ महाराज श्री बोले--अरे खीमचन्द भाई, यह तुम क्या कह रहे हो ? छगन की दीक्षा और वह भी परसों एकम को ? यहां तो इस बात का किसी को ख्याल तक भी नहीं, फिर एकम का तो पैसे ही क्षय है, तुमको यह ध्यान कैसे आया ? मुझे तो यह स्वप्न जैसा ही प्रतीत हो रहा है। तब खीमचन्द भाई ने वह पत्र निकाल कर आचार्य श्री के आगे रख दिया जिसमें लिखा था "आप जल्दी आओ एकम को मेरी दीक्षा है" पत्र को देख कर महाराज श्री ने छगनलाल को बुलाया और पूछा अरे ! यह पत्र तूने लिखा है ? छगनलाल-(डरता हुआ) जी हां मैंने लिखा था। तुमने झूठ मूठ लिख कर इनको इतनी दूर आने की तकलीफ क्यों दी ? महाराज श्री ने जरा उत्तेजित होकर पूछा। छगनलाल--(साहस पूर्वक) कृपानाथ ! अपराध क्षमा हो, मैंने ये सब कुछ अपनी स्वार्थ सिद्धि - के लिये किया है। मैं शीघ्र से शीघ्र साधुरूप ले आपश्री के चरणों में निवेदित होना चाहता हूँ,मैं उस समय की बडी आतुरता से प्रतीक्षा कर रहा हूँ जब कि राधनपुर की जनता के समक्ष मुनि वेष से सुसज्जित मेरे मस्तक पर श्राप श्री के वरद हस्त से वासक्षेप पड़ रहा हो। परन्तु इसके लिये जब आप श्री से प्रार्थना की जाती है तो आप भाई की आज्ञा का प्रतिबन्ध लगा देते हो, और भाई चाहते नहीं कि मैं संसार का त्याग करके साधु मार्ग को अपनाऊ ? जब परिस्थिति यह है तो भाई को ऐसी क्या गर्ज पड़ी है जो वह मुझे साधु बनने की आज्ञा देवे। इस सारी परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए मुझे अपनी कार्य सिद्धि का यही एक मात्र उपाय सूझा सो अब भाई सहाब आगये हैं आप इनसे बातचीत करके अन्तिम निर्णय कर लेवें। यही मेरी आपसे और (खीमचन्द भाई की तरफ इशारा करके) इनसे प्रार्थना है। मैने सेठ मोहनलाल के घर में इनके सन्मुख अपने विचारों को बड़े स्पष्ट शब्दों में व्यक्त कर दिये हैं अब उन पर ध्यान देने की कृपा करना इनका फर्ज है गुरुदेव ! तब खीमचन्द भाई को सम्बोधित करते हुए आचार्य श्री बोले--भाई खीमचन्द कहो अब तुम्हारी क्या मरजी है, तुमने इसके विचारों को सुन लिया, और हमने जो तुम्हारे साथ वायदा किया था कि तुम्हारी आज्ञा के बिना हम दीक्षा नहीं देंगे सो उस पर हम दृढ हैं, जब तक तुम प्रसन्न होकर आज्ञा नहीं दोगे तब तक हम इसे दीक्षा नहीं देंगे ? इसलिये तुम्हारा जो कुछ विचार हो उसे बिना संकोच कहो । खीमचन्द भाई-हाथ जोड़ कर-महाराज ! मोह के वशीभूत होकर मैंने इसे घर में रखने का भरसक प्रयत्न किया, यह मुझे पुत्र से भी अधिक प्यारा है । जिस भावना से मैंने छुटपन से इसका पालन पोषण किया वही भावना इसे घर में रखने के लिये मुझे बाधित करती रही। उसी प्रेम या मोह का प्रेरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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