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जन्म और बाल्यकाल
उपस्थित हुई जिसने कुछ क्षणों के लिये इन दोनों को विचार विमुग्ध बना दिया । वास्तव में बात भी ऐसी ही थी। कुछ समय विचार करते २ दोनों पति पत्नी की दृष्टि जीरा के रईस लाला जोधामल के ऊपर गई। वे गणेश चन्द्र जी के घनिष्ट मित्र थे, दोनों का आपस में बड़ा प्रेम था।
जिस समय मनुष्य सुखी और सम्पन्न होता है उस समय बरसाती मेंडकों की तरह इधर उधर से उसके अनेक मित्र निकल आते हैं, चारों ओर मित्रों का ही तांता बन्धा रहता है परन्तु विपत्ति-काल में वे गधे के सींग से बन जाते हैं, जाने कभी थे ही नहीं । परन्तु लाला जोधामल वैसे मित्रों में से नहीं थे, वे तो सच्चे मित्र थे वैसे ही जैसे कि नीति शास्त्र के एक श्लोक में वर्णित है
कराविव शरीरस्य, अक्षणोरिव पक्ष्मणी । अप्रेरितो हितं कुर्यात् , तन्मित्रं मित्रमुच्यते ।।
जैसे बिना किसी की प्रेरणा से हाथ शरीर की और पलकें नेत्रों की रक्षा करते हैं इसी प्रकार जो व्यक्ति विपत्ति के समय अपने मित्र की सहायता के लिये तत्पर रहता है वही सच्चा मित्र है । लाला जोधामल भी ऐसे ही साबित हुए।
अपने प्रिय पुत्र आत्माराम को साथ लेकर गणेशचन्द्र अपने मित्र लाला जोधेशाह के पास पहुंचे और अश्रुपूर्ण नेत्रों से कहने लगे यह मेरे सारे जीवन की पूञ्जी है, मैं इसे आपके सुपुर्द करता हूँ, आपसे बढकर मेरा और कोई विश्वास पात्र नहीं । मुझे आशा ही नहीं किन्तु पूरा विश्वास है कि आप मेरे इस जीवन धन को मेरे से भी अधिक सावधानी से सुरक्षित रखेंगे ।
अपने मित्र की करुणाजनक स्थिति पर दुःख प्रकट करते हुये पूरी सहानुभूति से बालक आत्माराम को अपनी गोदी में उठाकर लाला जोधेशाह बोले-तुम जानते हो गणेशचन्द्र ! यह मुझे कितना प्यारा है ? इससे मुझे कितना स्नेह है ? अाज से मैं इसको अपना धर्म पुत्र बनाता हूँ , इसके पालन-पोषण का सारा भार मेरे ऊपर है, तुम इसके लिये बिल्कुल निश्चिन्त रहो ! जो सुख और सुविधायें मेरे अपने बच्चों को मिलेंगी वे सभी आत्माराम को प्राप्त होंगी । पढा लिखाकर इसको योग्य बनाऊंगा, इसका विवाह करूगा, और अपनी सम्पत्ति में से पूरा हिस्सा दूंगा । आपके वियोग का मुझे असीम दुःख है परन्तु इस वियोग में आपकी यह अमानत मुझे पूरा आश्वासन देगी। जिस समय आत्मारामजी अपने पिता के साथ जीरा में आये और अपने धर्म पिता जोधेशाह की गोद में पहुंचे उस समय आपकी आयु लगभग बारह वर्ष की थी। वि० सं० १६०६ में आपको जोधेशाह की संरक्षता प्राप्त हुई।
लाला जोधामल के घर आकर बालक आत्माराम पहिले पहल तो बहुत उदास रहे, एक तो अपने माता पिता का वियोग, तिस पर वे यह भी न समझते थे कि उसे क्यों इस प्रकार त्यागा जा रहा है । इसके
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