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अध्याय ८४
"पूर्णिमा की यात्रा"
कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी को चातुर्मास समाप्त हुआ और दूसरे रोज पूर्णिमा को तीर्थाधिराज श्री सिद्धाचलजी की यात्रा आरम्भ होगई । आपश्री ने अपने शिष्यवर्ग पंजाबी मंडली के साथ ऊपर चढ़कर बड़े आनन्द से यात्रा की। ऊपर पर्वत की चोटी पर विराजमान श्री ऋषभदेव भगवान के चरणों में भावपूर्ण श्रद्धा पुष्पांजलि भेट करते हुए अपने हृदय के भावों को जिन शब्दों में व्यक्त किया उसका थोड़ासा नमूना पाठकों को आपके निम्न लिखित स्तवन से देखने को मिलेगा
___ जिनन्दा तोरे चरण कमल की रे । हूँ चाहुँ सेवा प्यारी, तो नासे कर्म कठारी, भव भ्रान्ति मिटगई सारी,
जिनन्दा तोरे चरण कमल की रे ॥१॥ विमल गिरि राजे रे, महिमा अति गाजे रे, बाजे जग डंका तेरा, तूं सच्चा साहब मेरा, हूँ बालक चेरा तेरा, जिनंदा तोरे च० ॥२॥ करुणाकर स्वामी रे, तूं अन्तरजामी रे, नामी जग पूनमचन्दा, तूं अजर अमर सुखकन्दा, तूं नाभिराय कुलनन्दा, जिनंदा तोरे च० ॥३॥ इण गिरि सिद्धा रे, मुनि अनन्त प्रसिद्धा रे, प्रभु पुंडरीक गणधारी, पुंडरीक गिरि नाम कहारी, ए सहु महिमा है थारी, जिनंदा तोरे च० ॥४॥ तारक जग दीठारे, पाप-पंक सहु नीठारे, इठा सो मनमें भारी, मैं कीनी सेवा थारी, तं भास रह्यो शुभचारी, जिनंदा तोरे च० ।५॥
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