SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जन्म और बाल्यकाल सोढी साहब एक सम्पत्तिशाली गृहस्थ थे, उनके वहाँ अन्य सांसारिक वैभव की कमी न थी केवल कमी थी तो एकमात्र सन्तान की थी उनके वंशतन्तु को चलानेवाला कोई न था, अपनी सम्पत्ति का उत्तराधिकारी वे किसे बनावें इसी चिन्ता में उनका जीवन व्यतीत होता था, एक दिन उन्होंने बालक आत्माराम को गोद में उठाते हुए गणेशचन्द जी से कहा कि आप यदि अपने इस बालक को मुझे देदें तो मैं इसको अपनी सारी सम्पत्ति का सर्वेसर्वा उत्तराधिकारी बनादूँ, कहो क्या विचार है ? सोढ़ी साहब ! आप मेरे घनिष्ट मित्र हैं और आपकी मेरे ऊपर कृपा भी बड़ी है परन्तु आपने जो मांग की है मुझे दुःख है कि मैं उसे पूरी करने में सर्वथा असमर्थ हूँ, आशा है आप मुझे क्षमा करेंगे ? गणेशचन्द्र जी ने बड़ी नम्रता और गम्भीरता से उत्तर दिया । ५ तुमने मेरी मांग को ठुकराया है गणेशचन्द्र ! इस का परिणाम अच्छा न होगा । सोढी जी ने बड़ी गर्व भक्त से जबाब दिया । सोढी साहब की इस गर्वोक्ति का गणेशचन्द्र जी ने कुछ भी उत्तर न दिया और सोढी साहब निराश होकर वहां से चलदिये, मन में प्रतिकार की भावना लेकर | स्वार्थपूर्ण मनोवृत्ति पुरुष को विवेकहीन बना देती है। विवेकशक्ति के लुप्त होते ही मानव दानव बन जाता है । स्वार्थ के कीचसे दूषित हुई मनोवृत्ति, मानवको, बड़े से बड़ा अनर्थ करने पर उतारू कर देती है । धनिकों और शासकों में इस दूषित मनोवृत्ति का अधिक प्रभाव देखने में आता है, धन और सत्ताके मद में उन्मत्त हुए व्यक्तियों ने कितने भयंकर अत्याचार किये हैं, इतिहास इसका प्रत्यक्ष साक्षी है, सोढी अत्तरसिंह ने गणेशचन्द्र के इनकार पर इसी दूषित मनोवृत्ति का परिचय दिया । गणेश चन्द्र को असह्य कष्ट पहुँचाने, उसे कारागार में डालने के लिये अनेक प्रकार के षड़यंत्र रचे, और उसमें सोढी साहब को थोड़ी बहुत सफलता तो प्राप्त हुई मगर जिस उद्देश्य से उसने इस दानव कृत्यको अपनाया उसमें तो वह विफल ही रहा । जिस आत्माराम के लिये उसने मानवता को त्यागकर दानवता को अंगीकार किया उसकी प्राप्ति से तो वह वंचित ही रहा । इस सम्बन्ध में गणेश चन्द्र की दृढ़ता और निर्भयता की जितनी प्रशंसा की जावे उतनी ही कम है। उसने अपने प्रिय पुत्र को पराया बनाने की अपेक्षा कारागार के कष्टों को सहन करना अधिक पसन्द किया । गणेश चन्द्र जी की इच्छा अपने प्रिय पुत्र को अपने जैसा शूरवीर सैनिक बनाने की थी, इसीलिये वे बालक आत्माराम को प्रतिदिन अपनी गोद में लेकर उसे शूरवीरों और योद्धाओं की कथायें सुनाया करते थे । महाराजा रणजीत सिंह की वीरता और सिक्ख सैनिकों के साहस पूर्ण पराक्रमों का वर्णन अपने प्रिय पुत्र के सामने किया करते थे । यूं तो प्रत्येक मानव का बालपन एकसा ही होता है, खेलना कूदना खाना पीना सोना और जागना, परन्तु महान आत्माओं का बालपन कुछ निराला ही होता है । बचपन की कोई न कोई विशेषता उनके आगामी महान जीवन का परिचय देदेती है ! " होनहार बिरवान के होत चीकने पात" वाली लोकोक्ति बालक आत्माराम पर पूर्णतया संघटित होती है | आप सुन्दर स्वस्थ और बलिए तो थे ही परन्तु इसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy