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________________ - २८४ नवयुग निर्माता प्रसिद्ध हुआ । तात्पर्य कि यह मन्दिर वह है जहां अश्व-घोड़े को अवबोध-ज्ञान प्राप्त हुआ था। कालान्तर में एकदा उक्त मन्दिर से कुछ दूरी पर एक बट का वृक्ष था और उस पर एक समली-चील्ह बैठी हुई थी, किसी पारधी-शिकारी ने उसके तीर मारा, तीर के लगने से वह तड़पती हुई उस मंदिर के एक विभाग में आ गिरी । उस समय एक मुनि मन्दिर में प्रभु दर्शन करके बाहर आ रहा था तब उसने तड़फती हुई उस समली को देखा, देखकर मुनि को उस पर दया आई तब उसने उसको नमस्कार मन्त्र सुनाया और अपने पात्र में से पानी लेकर उस पर छींटा दिया । समली, मुनि के इस दयापूर्ण व्यवहार से ज़रा सावधान होकर उसे देखने लगी. परन्तु विषाक्त तीर का घाव इतना प्रबल था कि मुनि के दिये हुए नमस्कार मन्त्र को सुनते सुनते ही उसका प्राणान्त होगया और मुनि के सुनाये हुए नमस्कार मन्त्र के प्रभाव से वह मरकर सिंगल द्वीप में राजकुमारी के रूप में उत्पन्न हुई । कुछ कालान्तर में एक दिन भरुच के रहने वाला एक व्यापारी श्रावक व्यापार के निमित्त सिंगल द्वीप में गया और महसूल मुबाफ कराने की गर्ज से कुछ बहुमूल्य वस्तु भेट लेकर वहां के राजा के पास गया । उस वक्त राजकुमारी सुदर्शना भी अपने पिता के पास बैठी हुई थी। दैव योग उस व्यापारी श्रावक को छींक आई, तब उसने "नमो अरिहंताणं" कहा इन अक्षरों के कान में पड़ते ही कुमारी सुदर्शना चमकी और कुछ उहापोह करती २ धरती पर गिर पड़ी। उसके गिरते ही वहां हाहाकार मच गया । शीतल और सुगन्धित जल के छिड़कने और हवा करने आदि विविध प्रकार के उपचारों से जब वह होश में आई तो कहने लगी कि मेरा वह उपकारी कहां गया ? उसे मेरे पास लाओ जल्दी लाओ ? परन्तु राजा की अनुमति से वहां उपस्थित लोगों ने तो उस की मुश्के बांध कर उसे अलग बिठा रक्खा था। जब राजकुमारी ने इधर उधर देखा तो उसकी दृष्टि उस व्यापारी पर पड़ी जोकि मुश्के बांधकर बिठा रक्खा था। उसे देखते ही उसने पुकारा कि अरे तुम लोगों ने यह क्या किया ? छोड़दो इसे यह तो मेरा महान उपकारी है । यह सुनकर राजकुमारी सुदर्शना के पिता बोले बेटी ! यह क्या माजरा है ? हम लोग कुछ भी समझ नहीं पाये। राजकुमारी-पिताजी ! इसकी मुश्कें खोलकर इसे मेरे पास लाभो ? तब राजा ने उस व्यापारी की मुश्के खुलवाकर उसे अपने पास बुलाया और वह नमस्कार करके राजा के पास बैठ गया। अपने पिता के पास बैठे हुए उस व्यापारी श्रावक को सम्बोधित करते हुए राजकुमारी बोली-पिताजी ! आप कहां के हो और कहां से आये हो ? व्यापारी-बेटी ! मैं भरुच का रहने वाला हूँ और वहीं से व्यापार के निमित्त यहां आया हूँ। यह सुनते ही राजकुमारी गद्गद् हो उठी और बोली-आप जब वापिस वहां जाओ तो मुझे भी साथ लेजाना । यह सुनकर राजा को बड़ा विस्मय हुआ । वह अपनी पुत्री से बोला बेटी ! तू तो अभी बालिका है तुमको भरुच का ज्ञान कैसे हुआ ? पिता के इस प्रश्न के उत्तर में कुमारी सुदर्शना ने अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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