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खंभात और भरुच आदि तीर्थ स्थानों की यात्रा
तीर्थ की यात्रा के लिये गये थे उस वक्त उन्होंने प्रभु की स्तुतिरूप " जगचिंतामणि चैत्यवन्दन" का उच्चारण किया था । उसमें "भरुच्छहिं मुखिसुव्वय" ऐसा पाठ आता है। इस पर से इस मन्दिर की प्राचीनता निर्वाध प्रमाणित होती है ।
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प्रस्तुत विषय का इतिवृत इस प्रकार है
से देखा कि नर्मदा नदी के कांठे पर बसे हुए भरुच में वहां के किया, उसमें यज्ञ के हवन कुण्ड में आहुति देने के लिये एक सुन्दर
तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत स्वामी को जब केवलज्ञान उत्पन्न हुआ तब उन्होंने अपने ज्ञान कतिपय ब्राह्मणों ने एक यज्ञ का आरम्भ घोड़े को बान्ध रक्खा है । वह घोड़ा स्वामी के पिछले जन्मों में किसी जन्म का मित्र था । उसको प्रतिबोध होना जानकर प्रभु वहां पधारे, देवों ने वहां पर समोसरण की रचना की । और जब प्रभु ने देशना देनी आरम्भ की तो उनकी योजन गामिनी वाणी जब उस घोड़े के कान में पड़ी तो उसे जाति स्मरण ज्ञान होगया । वह बन्धनको तोड़कर प्रभु के समोसरण की तर्फ दौड़ा। यह आश्चर्य देखकर लोग भी उसके पीछे दौड़े। वह घोड़ा समोसरण में प्रभु को प्रदक्षिणा देकर अपने स्थान में खड़ा होगया और बार २ प्रभु को देखकर आगे २ सरकता हुआ प्रभु के समीप में जाकर नत मस्तक हुआ अर्थात् उसने प्रभु को नमस्कार किया। प्रभु उसके मनके भाव को जानकर उसे अनशन व्रत करवा दिया। तब काल करके वह देवलोक में देवता बना; देवता के भव में आने के बाद अपने स्वभाव सिद्ध ज्ञान से उसने अपना पिछला भव जान लिया और प्रभु के समवसरण में उपस्थित देवों की पर्षदा में आकर बैठा और सबके समक्ष अपना चरित्र सुनाने लगा- मैं पिछले भव में घोड़ा था, हवन करने के लिये बांध रक्खा था" परन्तु जब आपकी वाणी मेरे कान में पड़ी तो ऊहापोह करते हुए मुझे जातिस्मरण ज्ञान हुआ, उससे मैंने आपको अपने किसी पूर्वले भव का मित्र जानकर आपके प्रति मेरा सद्भाव उत्पन्न हुआ, मैं यज्ञ स्तम्भ से छूटकर आपके समवसरण में पहुंचा आपने मेरा भाव जानकर मुझसे अनशन कराया तब मैं शरीर त्याग करके देवलोक में देवता हुआ । अब अवधिज्ञान से आपको और अपने पूर्व भव को जानकर आपके दर्शनार्थ यहां पर आ हाजर हुआ हूँ । इस चमत्कारपूर्ण वृत्तान्त को सुनकर और अहिंसा प्रधान प्रभु की देशना के प्रभाव से बहुत से ब्राह्मणों ने हिंसा - प्रधान यज्ञ-यागादि अनुष्ठान का परित्याग करके जैन धर्म की गृहस्थ दीक्षा को अंगीकार किया और कितने एक साधु-धर्म दीक्षित होगये । उस समय उस देवता ने एक तरफ भगवान के समवसरण की रचना मन्दिर बनवाया और उसमें अपनी घोड़े की मूर्ति इस रूप में बनवाई कि मानो यज्ञ भूमि में से दौड़ा हुआ समवसरण में जा रहा है और एकाप्रचित्त से देख रहा है। बिहार नाम मन्दिर का है। तब से घोड़े का निशान होने पर इस मन्दिर का नाम "अश्वावबोध बिहार"
प्रभु को वन्दना नमस्कार करके यहां ब्राह्मणों ने मुझे यज्ञ में
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