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________________ लीबड़ी के राजा साहिब के भेट २७६ गम्यो हि कार्य-कारणभावः' अर्थात् कार्य-कारणभाव और अन्वय व्यतिरेक इन दोनों में गम्य गमक भाव, मानो व्याप्य व्यापक सम्बन्ध है । जैसे धूम और वन्हि में व्याप्य व्यापक सम्बन्ध पहले बतलाया गया है । जहां पर धूम होता है वहां पर अग्नि अवश्य होती है, और जहां अग्नि होती है वहां धूम हो भी और न भी हो । तात्पर्य कि जहां व्याप्य होता है वहां पर व्यापक अवश्य होता है परन्तु जहां व्यापक होता है वहां व्याप्य होता भी है और नहीं भी होता। इसी प्रकार कार्य-कारणभाव और अन्वय व्यतिरेक भाव इन दोनों में व्याप्य व्यापक सम्बन्ध है । यहां पर कार्य-कारणभाव व्याप्य है और अन्वय व्यतिरेकभाव व्यापक है। सारांश कि जहां कार्य-कारणभाव होगा वहां अन्वय-व्यतिरेक अवश्य होगा परन्तु जहां अन्वय-व्यतिरेक है वहां कार्य-कारण होवे भी और न भी होवे । न्याय सम्मत अन्वय व्यतिरेक का लक्षण है-तत्सत्वे तत्सत्वमित्यन्वयः" तदभावे तदभाव इति व्यतिरेकः” अर्थात् कार्य के सद्भाव में कारण के सद्भाव को अन्वय कहते हैं और कारण के असद्भाव में कार्य के असद्भाव को व्यतिरेक का नाम दिया है । जैसे कि जहां धूम (कार्य) है वहां पर अग्नि (कारण) अवश्य होती है यह अन्वय कहलाता है और जहां पर अग्नि (कारण) नहीं है वहां पर धूम (कार्य) भी नहीं होता इसे व्यतिरेक कहते हैं । इसी प्रकार अगर ईश्वर और सृष्टि-जगत में परस्पर कार्य-कारणभाव है अर्थात जगत कार्य और ईश्वर उसका कारण इस प्रकार दोनों का कार्य-कारण सम्बन्ध यदि सुनिश्चित है तो उनमें अन्वय व्यतिरेक भी अवश्य होना चाहिये जैसे कि अग्नि और धूम में देखा जाता है । परन्तु यहां पर ईश्वर के साथ जगत् का अन्वय तो है लेकिन व्यतिरेक सिद्ध नहीं होता । व्यतिरेक दो प्रकार का माना है एक काल व्यतिरेक दूसर। क्षेत्र व्यतिरेक । इन दोनों प्रकार के व्यतिरेकों में से ईश्वर में एक भी सिद्ध नहीं होता । ईश्वर को नैयायिकों ने नित्य माना है इसलिये काल व्यतिरेक भी नहीं और न्याय मत में ईश्वर सर्व व्यापक है अतः उसमें क्षेत्र व्यतिरेक भी नहीं है । काल व्यतिरेक तब प्रमाणित होगा जब यह कहें कि जिस २ समय ईश्वर नहीं उस २ वक्त जगत भी नहीं, परन्तु ऐसा कथन तो संगत नहीं हो सकता ईश्वर तो सदैव काल है उसका तो किसी समय पर भी अभाव नहीं । और क्षेत्र व्यतिरेक तब हो जब यह माने कि जिस २ स्थान में ईश्वर नहीं वहां जगत भी नहीं, यह कथन भी ईश्वर की व्यापकता का विघातक है । जब व्यतिरेक सिद्ध नहीं होता तो ईश्वर और जगत में कार्य-कारणभाव भी सिद्ध नहीं हो सकता और जब इनका कार्य कारण भाव ही सिद्ध नहीं तो ईश्वर जगत् का कारण-कर्ता है यह कैसे प्रमाणित माना जाय ? इसका आप ही विचार करें ? मेरे विचारानुसार तो इन्हीं विप्रतिपत्तियों को ध्यान में रखते हुए अपेक्षावाद प्रधान समन्वय दृष्टि रखने वाले जैन दर्शन ने इस कर्तृत्ववाद की गुत्थी को इस प्रकार सुलझाने का यत्न किया है कि ईश्वर का कर्तृत्व उसके साक्षीरूप में ही पर्यवसित हो सकता है। यह सृष्टि प्रवाह से अनादि है और जगत् वासी जीव अनेक प्रकार के निमित्तों द्वारा कर्मों का उपार्जन करते हैं और विविध प्रकार के निमित्तों के द्वारा ही उनका फल भोगते हैं ईश्वर का इसमें कोई दखल नहीं, ईश्वर तो केवल साक्षीरूप है । यह जीव जिन २ निमित्तों द्वारा कर्म करता है उसका फल भी उसको उसी प्रकार के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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