________________
२८०
नवयुग निर्माता
निमित्तों द्वारा मिल जाता है। यह बात कर्मों के स्वरूप को समझने पर भलीभांति विदित हो जाती है। कमों के स्वरूप को यथावत् न समझने से ही लोक में उनके फल देने में विविध प्रकार की शंकायें उत्पन्न हो रही हैं । कर्म एक पौद्गलिक द्रव्य वस्तु है, उसका आत्मा के साथ किस प्रकार सम्बन्ध होता है और किन २ निमित्तों द्वारा यह जीव उनका बन्ध करता है और किस प्रकार उनकी निर्जरा होती है इत्यादि सारी बातों का जैन परम्परा के कर्म स्वरूप विवेचन प्रधान ग्रन्थों में बड़े विस्तार से स्पष्टीकरण किया गया है जो कि आप जैसे विद्वानों के देखने योग्य है । अब रही ईश्वर की बात सो वह तो सर्व दोषों से रहित निरंजन निर्विकार सर्वज्ञ सर्वदर्शी और प्राप्त काम है। उसके सर्वव्यापी निर्मल ज्ञान में विश्व के समस्त पदार्थ सामान्य अथच विशेषरूप से करामलकवत् आभासित हो रहे हैं । अमुक जीव अमुक निमित्त के द्वारा अमुक प्रकार के शुभ या अशुभ कर्म का बन्ध कर रहा है और अमुक जीव अमुक समय में अमुक निमित्त के द्वारा उपार्जन किये हुए शुभ या अशुभ कर्म का अमुक निमित्त के द्वारा फल भोग रहा है इत्यादि सब कुछ ईश्वर के ज्ञान में निहित है, बस यही उसका निर्दोष कर्तृत्व है । इसी प्राशय से जैन शास्त्रकारों ने कहा है
सर्वभावेषु ज्ञातृत्वं कर्तृत्वं यदि संमतम् । ।
मतां नः सन्ति सर्वज्ञा मुक्ताः काय भृतोऽपिच ॥१॥ अर्थात् यदि सर्व भावों पदार्थों का यथावत् ज्ञान धराने वाले को ही कर्ता माना जावे तब तो हमें भी स्वीकार है । हमारे यहां दो प्रकार के सर्वज्ञ ईश्वर माने हैं एक मुक्त विदेह स्वरूप और दूसरा कायभूत शरीर धारी। ये दोनों क्रमशः सिद्ध और अरिहन्त के नाम से पुकारे जाते हैं। तात्पर्य कि एक ईश्वर शरीर धारो जो कि जीवन मुक्त कहलाता है और दूसरा शरीर रहित सिद्ध परमात्मा सच्चिदानन्दरूप जो कि मुक्तात्मा कहा जाता है । इन दोनों का निर्मल ज्ञान चराचर में व्याप्त है इसलिये ये दोनों प्रकार के शरीरी और अशरीरी ईश्वर सर्वज्ञ सर्वदर्शी अथच चराचर के ज्ञाता हैं । आप लोग स्वयं सब विषयों के जानकार हैं इसलिये आप लोगों के समक्ष यह जैन दृष्टि से किया गया संक्षिप्त विवेचन ही पर्याप्त होगा।
राजा साहब को सम्बोधित करते हुए आपने कहा राजन् ! आपके इन सुयोग्य विद्वानों ने न्यायदर्शन के अनुसार जो ईश्वर में कर्तृत्व की स्थापना करने का यत्न किया है वह प्रेरकरूप में पर्यवसित होता है और हमारे साधु ने उसे ज्ञातारूप में स्वीकार करने का सदाग्रह किया है । तात्पर्य कि वह सर्व पदार्थों का ज्ञाता है प्रेरक नहीं । अब आपको जो उचित लगे उसे स्वीकारें इसमें किसी प्रकार के हठ या दुराग्रह को कोई स्थान नहीं । विचारशील पुरुषों में मत भेद तो हो सकता है किन्तु मत विरोध को उनके हृदय में कोई स्थान नहीं होता। आज के इस शास्त्रीय प्रसंग को सद्भावपूर्ण उदार मनोवृत्ति से पर्यालोचन करने का यत्न करना यही मेरी आप लोगों से नम्न सूचना है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org