SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 307
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७८ नवयुग निर्माता लागू हो जाता है । दूसरे शब्दों में-ईश्वर सृष्टि की रचना कब करे जब जीवों को शुभाशुभ कर्मों का फल भुक्ताना हो और जीव शुभाशुभ कर्मों में कब प्रवृत्त हों जब सृष्टि रचना अर्थात् उनके शरीर का निर्माण हो । ऐसी परिस्थिति में तो कोई भी सिद्धान्त स्थिर नहीं हो सकता । इसी विचारधारा को सन्मुख रखकर वैदिक परम्परा की अद्वैत सम्प्रदाय के महान संस्थापक स्वामी शंकराचार्य ने महर्षि व्यास प्रणीत वेदान्त दर्शन के पत्युरसामंजस्यात् [२।३७] इस सूत्र के भाष्य में नैयायिकाभिमत ईश्वर के कर्तृत्व-निमित्त कारणवाद की बड़े तीव्र शब्दों में आलोचना की है , जिसमें उन्होंने इस सिद्धान्त को नितरां युक्तिशून्य बतलाया है इतना कहने के बाद आप उपस्थित पंडितों को सम्बोधित करते हुए फिर बोले पंडितजी ! राजा साहब तो इस विषय में अधिक प्रवीण नहीं किन्तु आप तो न्याय शास्त्र के प्रकाण्ड पंडित हैं आपने न्यायदर्शन के सिद्धान्तानुसार “क्षित्यादिकं बुद्धिमत्कर्तृकं कार्यत्वात् घटवत् " अर्थात् पृथिवी श्रादिक पदार्थ किसी बुद्धिमान् कर्ता के बनाये हुए हैं क्यों कि ये कार्य हैं, जो जो कार्य होते हैं वे सब बुद्धिमत् कर्तृक ही होते हैं जैसे घट श्रादि पदार्थ, पृथिवी आदिक भी कार्य हैं इसलिये ये भी किसी बुद्धिमान के ही बनाये हुए हैं, वह बुद्धिमान कर्ता ही आपके मत में ईश्वर है । इस अनुमान के द्वारा श्राप ईश्वर को सृष्टि कर्ता प्रमाणित करते हैं । इस अनुमान में पृथिवी आदि पक्ष है, बुद्धिमत्कर्तृक अर्थात ईश्वर साध्य और कार्यत्व हेतु तथा घटादिक दृष्टान्त हैं । जैसे धूम से पर्वतगत वन्दि का अनुमान किया जाता है वैसे ही यहां पर कार्यत्व हेतु से कारण का अनुमान किया गया है और वह कारण ईश्वर है। दूसरे शब्दों में कहें तो व्याप्ति ग्रह ही अनुमति का साधक होता है । और साहचर्य नियम को व्याप्ति कहते हैं, जैसे धूम और वन्हि का साहचर्य है । व्याप्य व्यापक, जन्य जनक और कार्य कारण का ही नियत साहचर्य होता है। उदाहरण के लिये धूम और वन्हि-अग्नि को ही ले लीजिये ? धूम व्याप्य है वन्हि व्यापक, कारण कि जहां २ धूम है वहां २ वन्हि अवश्य है, और जहां वन्हि नहीं वहां धूम भी नहीं होता। और जहां पर वन्हि है वहां पर धूम होता भी है और नहीं भी होता, जैसे अयोगोलक तपाया हुआ लोहे का गोला । उसमें अग्नि तो है परन्तु धूम नहीं है । अतः धूम व्याप्य है और अग्नि व्यापक । इसी प्रकार इनका जन्य जनक अथच कार्यकारण भाव भी अनुभव सिद्ध है। परन्तु न्याय शास्त्र का एक सुनिश्चित सिद्धान्त है कि-"अन्वय व्यतिरेक ६ देखो उक्त सूत्र पर उनका शारीरिक भाष्य और उसकी भामती टीका का यह अभिलेख- अयमर्थः-यदीश्वरः करुणा पराधीनो वीतरागः स्वतः प्राणिनः कपूये कर्मणि न प्रवर्तयेत् , तच्चोत्पन्नमपि नाधितिष्ठेत् , तावन्मात्रेण प्राणिनां दुःखानुत्पादात् । नहीश्वराधीना जनाः स्वातंत्र्येण कपूयं कर्म कर्तुमर्हन्ति । तदनधिष्टितं वा कपूर्य कर्मफलं प्रसोतुमुत्सहते । तस्मात् स्वतंत्रोपीश्वरः कर्मभिः प्रवर्त्यते इति दृष्ट विपरीतं कल्पनीयम् । तथा चायमपरो गंडोपरि स्फोट इतरेतराश्रयः प्रसज्येत, कर्मणेश्वरः प्रवर्तनीय ईश्वरेण च कर्मेति ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy