SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 306
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बड़ी के राजा साहिब से भेट (३) चेतन पदार्थ की प्रवृत्ति का कोई प्रयोजन अवश्य होता है, बिना प्रयोजन के चेतन पदार्थ किसी भी कार्य में प्रवृत्त नहीं होता, तब सृष्टि रचना में ईश्वर की प्रवृत्ति भी किसी प्रयोजन से ही होनी चाहिये परन्तु प्रयोजन कोई दिखाई नहीं देता । ईश्वर आप्त और कृतकृत्य है, उसका कोई प्रयोजन बाकी नहीं, यदि उसका कोई प्रयोजन बाकी है तो उसकी ईश्वरता में कमी आती है । पंडितजी - जीवों के शुभाशुभ कर्मों का फल भुक्ताना ही सृष्टि रचना में प्रयोजन है । कर्म जड़ हैं वे स्वयं फल नहीं दे सकते । श्री आनन्द विजयजी - इसका अर्थ तो यह हुआ कि जीवों के कर्मों का फल भुक्ताने के लिये ईश्वरको सृष्टि रचना में प्रवृत्त होना पड़ता है । isit बात है महाराज ! हमारे यहां लिखा भी है- - २७७ "प्रज्ञो जन्तुरनीशोयमात्मनः सुखदुःखयोः । "ईश्वर प्रेरितो गच्छेत् स्वर्गंवा श्वभ्रमेव वा ॥ १ ॥ अर्थात यह अल्पज्ञ जीव अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मों के फलरूप सुख दुःख को स्वयं प्राप्त करने में असमर्थ है अतः ईश्वर की प्रेरणा से स्वर्ग अथवा नरक में जाता है । Jain Education International श्री आनन्द विजयजी - आपके इस कथन से दो बातें फलित होती हैं - पहली - जीवों के कर्म ईश्वर को प्रेरणा करते हैं और उनसे प्रेरित हुआ ईश्वर सृष्टि रचना में प्रवृत्त होता है। दूसरी यह कि सृष्टि रचना के बाद जीवों को उनके शुभाशुभ कर्मों का फल भुक्ताने के लिये ईश्वर प्रेरणा देता है अर्थात् उसकी प्रेरणा के अनुसार प्रवृत्ति करते हुए संसारी जीव अच्छे या बुरे फल को भोगते हैं । ऐसी दशा में न तो ईश्वर ही स्वतन्त्र रहता है और न जीवों की शुभाशुभ प्रवृत्ति में स्वतन्त्रता रहती है । तात्पर्य कि ईश्वर कर्माधीन हुआ और जीव ईश्वराधीन सिद्ध हुए । इस प्रकार स्वीकार कर लेने से इधर ईश्वर की स्वतन्त्रता का व्याघात होने से ईश्वरत्व का लोप हुआ उधर जीवों को स्वतन्त्र प्रवृत्ति से हाथ धोना पड़ा। इसके अतिरिक्त, जो कर्म जड़ होने से जीवात्मा को स्वयं फल भुक्ताने में असमर्थ हैं वे ईश्वर जैसी स्वतन्त्र सत्ता को प्रेरणा कैसे दे सकते हैं यह भी विचार करने योग्य है। एक बात और भी ध्यान देने योग्य है- जीवों के शुभाशुभ कर्मों का फल भुक्ताने के लिये ईश्वर सृष्टि की रचना करता है परन्तु शुभाशुभ कर्मों का फल भोगना और शुभाशुभ कर्मों का उपार्जन करना। ये दोनों ही शरीर सापेक्ष्य हैं बिना शरीर के न तो जीव कर्म कर सकते हैं और ना ही उनके फल को भोग सकते हैं एवं जीवों के शरीर की रचना अथवा सृष्टि निर्माण दोनों एक ही कोटि में परिगणित होते हैं । तब शरीर सापेक्ष्य कर्म और कर्म सापेक्ष्य शरीर होने से अन्योन्याश्रय दोष For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy