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________________ नवयुग निर्माता फिर लींबड़ी दरबार के पंडितों और अपने शिष्य मुनि शांति विजय जी को लक्ष्य रखते हुए आप बोले-आप लोगों ने जिस विषय को लेकर परस्पर विचार प्रारम्भ किया था वह बड़ा ही रोचक और उपादेय था। इसी दृष्टि से भारतीय दर्शन शास्त्रों में इसकी व्यापक चर्चा की गई है भारतीय दर्शनों में ऐसा शायद ही कोई दर्शन होगा जिसमें इस विषय की चर्चा को स्थान न मिला हो । परन्तु बुरा न मानना आप लोगों ने प्रस्तुत विषय को त्याग कर व्यक्तिगत आक्षेपों में ही अपनी विद्वता को चरितार्थ करने का यत्न किया जिससे मुझे और राजा साहब को ऐसा लगा कि कहीं बढ़ते २ यह शास्त्रार्थ शस्त्रार्थ का रूप धारण न कर लेवे अतः इसे स्थगित कर देना ही उचित है ताकि आपस में वैमनस्य न बढ़ना पावे । राजासाहब-महाराज साहब ! इन महानुभावों के बोलने में मुझे तो कुछ सार नज़र आया नहीं और ना ही मैं इनके अवच्छेदकावच्छिन्न और विशेष्यता प्रकारता को समझ पाया हूँ कृपा करके आप यदि इस विषय को संक्षेप से समझाने का कष्ट करें तो कुछ मेरे पल्ले भी पड़ जावे ? श्रीअानन्द विजयजी-राजन् ! इन पंडितों का कथन है कि इस सारे विश्वका कर्ता धर्ता एक मात्र ईश्वर है और हमारे इस साधु का कहना कि विश्व के सारे पदार्थों का निर्माता ईश्वर नहीं हो सकता ईश्वर का जो स्वरूप माना जाता है उससे उसमें ईश्वर में सृष्टि कर्तृत्व प्रमाणित नहीं हो सकता । ईश्वर श्राप्तकाम कृतकृत्य और सच्चिदानन्द सर्वज्ञ सर्वदर्शी अथच अशरीरी एवं नित्य मुक्त स्वरूप माना गया है तब ऐसा स्वरूप रखने वाले ईश्वर पदार्थ को घट का निर्माण करने वाले कुम्भकारकी तरह यदि सारे ब्रह्मांड का निर्माता स्वीकार किया जाय तो उसमें अनेक दोष उद्भव होते हैं ! यथा (१) संसार में जितने भी पदार्थ बने हुए दृष्टिगोचर होते हैं उनके बनाने वाले सब के सब शरीरी-शरीर वाले हैं, बिना शरीर वाले के कोई भी पदार्थ बनता हुआ दिखाई नहीं देता है। और जैसे आकाश अशरीरी है, वह किसी पदार्थ का निर्माण नहीं कर सकता इसी प्रकार अशरीरी होने से ईश्वर भी इस जगत का रचयिता सिद्ध नहीं होता। यदि ईश्वर को शरीरी माना जाय तो उसमें यह शंका उपस्थित होगी कि उस शरीर का निर्माण किसने किया । इस प्रकार तो अनवस्था दोष आवेगा। (२) कर्ता में इच्छा और प्रयत्न का होना आवश्यक है, बिना इच्छा और प्रयत्न के कार्य का निर्माण ही नहीं हो सकता। परन्तु ईश्वर आप्तकाम और कृतकृत्य है उसमें किसी प्रकार की इच्छा का संभव ही नहीं हो सकता, एवं व्यापक पदार्थ में कोई क्रिया-प्रयत्न भी नहीं होता यदि व्यापक वस्तु में किया या प्रयत्न अंगीकार किया जावे तो उसका व्यापकत्व ही नष्ट हो जावेगा । आकाश व्यापक है उसमें कोई क्रिया व प्रयत्न भी नहीं. इसलिये प्राप्तकाम और सर्व व्यापक ईश्वर में इच्छा और प्रयत्न दोनों ही सम्भव नहीं हो सकते और बिना इच्छा प्रयत्न के कर्तृत्व की उपपत्ति नहीं हो सकती । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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