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लीबड़ी के राजा साहिब से भेट
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लगे । तब महाराजश्री और लींबड़ी दरबार दोनों कुतूहलवश पंडितों के साथ होनेवाले मुनि शांतिविजयजी के संभाषण को चुपचाप सुनने लगे । इस शास्त्रार्थ का विषय था ईश्वर और उसका सृष्टिकर्तृत्व । पंडितों का पक्ष था कि इस दृश्यमान सृष्टि की रचना ईश्वर ने की है,और मुनि शांतिविजयजी कहते थे कि ईश्वर का जो स्वरूप आप मानते हैं उससे उसमें सृष्टिकर्तृत्व किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं हो सकता । उक्त विषय को लेकर पहले तो दोनों ओर से संस्कृत भाषा में जो संभाषण हुआ उस में उग्रता तो थी, भाषासमिति का उल्लंघन नहीं था । परन्तु थोडे ही समय के बाद इस वाणी विलास ने प्रस्तुत विषय को त्यागकर परस्पर कटाक्ष का उग्ररूप धारण कर लिया और वाग्विलास की जगह बाण वर्षा होने लगी। दोनों ओर से"अयोग्यो भवान् , अनभिज्ञो भवान्" इत्यादि अनुपयुक्त अथच अनुचित शब्दों का क्रोधावेश में व्यवहार होने लगा। तब राजा साहब ने महाराज श्री की ओर देखते हुए इस व्यर्थ के विवाद को शान्त करने का संकेत प्राप्त करके अपने पंडितों को कहा कि पंडितजी यह शास्त्र चर्चा है या क्रोध और अभिमान का प्रदर्शन ? श्राप जिन शब्दों का व्यवहार कर रहे हैं उन से तो आपका पराजित होना ही सिद्ध होता है । एवं मुनि श्री शांतिविजयजी से बोले कि महाराज! आप तो साधु हैं, क्षमाशील होने से क्षमाश्रमण कहलाते हैं इसलिये आप को तो अपनी साधु भाषा का कभी भी त्याग नहीं करना चाहिये । इतना कहकर जब दरबार चुप हुए तो गुरुमहाराज ने सब को शान्त करते हुए कहा कि भाइयो ! शास्त्रकारों का कथन है
"कोहो पीई पणासेइ, माणो विणय भंजणो" - अर्थात् क्रोध प्रीति का घातक है और मान विनय को नष्ट करने वाला है। विद्या प्राप्ति का फल तो नीतिकारों के कथनानुसार $ विनयी और विचारशील होना है, यदि विद्वान् ही अविनीत अथच विचारविधुर हो जावेंगे तो फिर विनय और विवेक जैसे गुणों को आश्रय ही कहां मिलेगा। जल, अग्नि को शान्त करने के लिये होता है यदि उसी में से अग्नि प्रकट होने लगे तो फिर अग्नि को शान्त करने के लिये किसका आश्रय लिया जावे ? तात्पर्य कि विद्वान् पुरुष के मुख से विनय रहित अभिमान पूर्ण शब्दों का निकलना ऐसा ही है जैसा जल से अग्नि का प्रादुर्भूत होना। इसलिये तात्विक विचारणा में जहां तक बन सके, विद्वान् पुरुष को सद्भावपूर्ण विचारसरणी का अवलम्बन करना चाहिये और उसमें भाषा समिति का पूरा २ ध्यान रखना चाहिये । ___ * छाया- क्रोधः प्रीतिं प्रणाशयति ,मानो विनय भंजन:”
$ विद्याहि विनयावाप्त्य, साचेदविनयावहा' ।।
किं कुर्मः कुत्र वायामः,सलिलादग्निरुत्थितः ।। भावार्थ- विद्या तो विनय प्राप्ति के लिये है 'मगर वही अविनय को देने वाली हो तो फिर क्या करें
और कहां जावें यह तो जल से अग्नि प्रकट होने वाली बात बनी !
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