SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 303
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७४ नवयुग निर्माता देखकर राजासाहिब बहुत प्रभावित हुए और मन ही मन कहने लगे-मैं ने आजतक अनेक साधु महात्माओं के दर्शन किये एवं उनके संसर्ग में भी अनेक बार पाने का अवसर मिला, परन्तु यहां पर आते ही इस महात्मा के दर्शन से मुझे जिस अपूर्व शांति का अनुभव हुआ, वैसा आज से पहले कभी नहीं हुआ। निस्सन्देह यह कोई अपूर्व व्यक्ति है। तदनन्तर हाथ जोड़कर नमस्कार करते हुए बड़ी नम्रता से बोलेमहाराज ! आप श्री के साधु-दर्शन से मुझे बहुत आनन्द प्राप्त हुआ। आपने अपने पुनीत चरणों से इस नगर को पावन किया यह मेरा और मेरी प्रजा का अहोभाग्य है । मुझे कई दिनों से आपके दर्शनों की इच्छा हो रही थी परन्तु कई एक सांसारिक कार्यों में व्यस्त रहने से दर्शन न करसका आप जैसे त्यागशील तपस्वी महापुरुषों के दर्शन भी किसी पुण्य से ही उपलब्ध होते हैं । कहिये श्राप कुशलपूर्वक तो हैं ? आपको यहां किसी प्रकार का कष्ट तो नहीं है ? मेरे योग्य कोई सेवा हो तो फर्माइये ? लोंबडी नरेश के नम्र निवेदन को सुनकर महाराज श्री आनन्दविजयजी बोले-राजन ! धनिकों और शासकों में नीतिनिपुण और व्यवहारपटु तो प्रायः सभी होते हैं परन्तु उनमें मानव जीवन के वास्तविक लक्ष्य की ओर प्रस्थान करने की रुचिवाला तो कोई विरला ही होता है । आपसे भेट होने पर मुझे यह जानकर बहुत प्रसन्नता हुई कि जहां आप प्रजा के शासक हैं वहां श्रापका, आत्मानुशासन की ओर भी ध्यान है । और वास्तव में देखा जाय तो मानव जीवन का प्रत्येक क्षण इतना मूल्यवान है कि उसको व्यर्थ खोना अधिक से अधिक अक्षम्य अपराध करना है। अतः इस देव-दुर्लभ मानव-भव को प्राप्त कर श्रेय-मार्ग का अनुसरण करने में ही मानव जीवन सफल और सार्थक बनता है। इतना कहने के बाद महाराज श्री आनन्दविजयजी ने लींबड़ी दरवार को बड़े मार्मिक शब्दों में धर्मोपदेश दिया. और दरवार उससे बड़े प्रभावित हुए । परन्तु राजासाहब के साथ में आये हुए पंडितों को उनका महाराजश्री के द्वारा प्रभावित होना अखरा । वे नहीं चाहते थे कि राजा साहब पर किसी अन्य व्यक्ति का प्रभाव पड़े जिससे उनके गौरव को क्षति पहुँचे । ब्राह्मणों को प्रायः इस बात का अभिमान होता है कि संस्कृत भाषा पर एकमात्र उन्हीं का अधिकार है, इसलिये वहां पर आये हुए पंडितों के हृदय में कुछ ईर्षा की मात्रा जागी और वे राजा साहब के कुछ कहने से पहले ही अपने पांडित्य का प्रदर्शन करने लगे अर्थात् उन्होंने महाराज श्री आनन्दविजयजी के साथ संस्कृत बोलना आरम्भ कर दिया । महाराजश्री ने भी [ इस दृष्टि से कि कहीं ये लोग इस बात का प्रचार करें कि इन को संस्कृत का ज्ञान नहीं -] उनके साथ संस्कृत में ही वार्तालाप शुरु कर दिया । परन्तु पंडितों के भाषण में जितनी उग्रता थी उससे कहीं अधिक शान्ति महाराजश्री के संभाषण में थी । पंडितों को ऊंचे २ बोलते देख समीप में एक किनारे पर अपना पाठ याद करने के लिये बैठे हुए महाराजश्री के शिष्य मुनि श्री शांतिविजय नाम के साधु अपने स्थान से उठकर वहां आगये और आते ही उन पंडितों से भिड़ गये । और उन्हीं की तरह बड़ो उग्रता से संस्कृत में बोलने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy