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थानापतियों की सज्जनता
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पुस्तक भी लिखकर प्रकाशित करादी , परन्तु आपके इस विफल प्रयास से महाराज श्री आनन्दविजयजी की प्रतिष्ठा को अणुमात्र भी क्षति नहीं पहुँची। अहमदाबाद और गुजरात काठियावाड़ की जैन जनता पर आपके कथन का कुछ भी प्रभाव न पड़सका । उससे जैन जनता के हृदय में महाराज श्री आनन्द विजयजी के प्रति जो गुणानुराग उत्पन्न हो चुका था उसमें अणु मात्र भी कमी नहीं आई। संस्कृत के किसी कवि ने क्या ही अच्छा कहा है
कर्णेजपानां वचनप्रपंचाः, महात्मनः क्वापि न दूषयन्ति । भुजंगमानां गरलप्रसंगान्नापेयतां यांति महासरांसि ।।
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5 इस पुस्तक का उत्तर महाराज श्री अानन्दविजयजी ने अपने शिष्य श्री शांतिविजयजी से पुस्तक के रूप में दिलाया जिसका नाम "अार्यानार्य देश दर्पण" है इसमें आर्यानार्य देशों के विषय में शास्त्रीय अाधार से बहुत अच्छा प्रकाश डाला है, और पन्यास श्री रत्नविजयजी के वक्तव्य की पूरी २ आलोचना की गई है । यह पुस्तक उसी समय छपवाकर प्रसिद्ध करा दिया गया था। इसके देखने से पाठकों को उक्त विषय का पूरा २ ज्ञान प्राप्त हो सकता है।
( लेखक )
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