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अध्याय ७१ "धानापतियों की सज्जनता"
अहमदाबाद के इस चतुर्मास में महाराज श्री आनन्दविजयजी को श्री संघ की ओर से जो प्रतिष्ठा और सम्मान प्राप्त हुआ वह आपके विद्वत्ता पूर्ण त्याग प्रधान आदर्श साधुजीवन के अनुरूप होने के साथ साथ अहमदाबाद के धार्मिक इतिहास में विशेष रूप से उल्लेख करने योग्य है । आपके प्रतिदिन के प्रवचन में सहस्रों स्त्री पुरुष आपके उपदेशामृत का पान करने के लिये अधिक से अधिक उत्सुक रहते, और आपकी तेजोमयी भव्य और प्रशान्त साधु मुद्रा को अपने हृदय मन्दिर में निरन्तर बिठाये रखने का पुण्य प्रयास करते । अधिक क्या कहें हर एक घर में आपके साधु गुणों का कीर्तन होना, और लोग उसमें अपूर्व आनन्द का अनुभव करते । परन्तु आपकी यह प्रतिष्ठा और अपूर्व सम्मान वहां के थानापति साधुओं को सह्य नहीं हुआ। वे नहीं चाहते थे कि उनके अधिकृत क्षेत्र में कोई दूसरा विदेशी साधु श्राकर जनता के सम्मान का विशेष भाजन बने, इसलिये वे पुखता दीवार में छिद्र ढंढने की कोशिश करने वाली च्युटी की तरह इसी ताक में थे कि कोई न कोई ऐसी बात उनके हाथ में आजावे जिसको सन्मुख रखकर वे महाराज श्री आनन्दविजयजी को जन समाज में किसी न किसी रूप में अपवादित करने में सफल हो सकें । मगर इसमें वे सफल नहीं हो पाये । दैवयोग, एक दिन महाराज श्री ने प्रसंगवश, श्रमण भगवान महावीर स्वामी के समय में साधु साध्वी के विचरने योग्य क्षेत्रों की मर्यादा कितनी और कहां तक थी इसका वर्णन करते हुए वृहत्कल्प भाष्य और नियुक्ति पाठ के *आधार से बतलाया कि दक्षिण दिशा में कौशाम्बी तक साधु साध्वी का बिहार
* वृहत्कल्प भाष्य और नियुक्ति का टीका युक्त वह पाठ इस प्रकार हैवृहत्कल्पसूत्र- उद्दे० १ सृ० ५०
कप्पई निगंथाणवा निगंथीणवा पुरथिमेणं जाव अंग मगहाओ एत्तए, दक्खिणे णं जाव कोसंबीओ, पच्चत्थिमेणं जाव थुणाविसयाओ, उत्तरेणं जाव-कुणाला विसयानो एत्तए । एताव नाव कप्पइ । एताव ताव पारिण खेत्ते । नोसे कप्पइ एत्तो वाहिं । तेण परं जत्थ नाण दंसण चरित्ताई उस्सप्पंति त्तिवेमि ।
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