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________________ २६८ गोयुग निर्माता पहुंचानी चाहते हैं । वहां पर पूजा सेवा के लिये वीतराग प्रभु के जो मन्दिर निर्माण हुए या हो रहे हैं उनमें जिस २ वस्तु की आवश्यकता हो वह हम भेजना चाहते हैं । ____ श्री श्रानन्दविजयजी-तुम लोगों की यदि यह इच्छा है तो बहुत अच्छी बात है । अपने साधर्मी भाई को मदद देना, धर्म से गिरते हुए साधर्मी भाई को धर्म में लगाना यह तो श्रावक का सब से पहला कर्तव्य है, मैंने उपदेश द्वारा वहां जिन लोगों को वीतराग देव के धर्म का अनुगामी बनाया है उनको बनती सहायता देने का आप लोग जो विचार कर रहे हैं वह कम प्रशंसनीय नहीं है। इसलिये आप खुशी से मदद देवें । तदनन्तर श्री संघ के आगेवानों ने बहुत सी धातु और पाषाण की जिनप्रतिमायें पंजाब के भिन्न २ शहरों में सेवा पूजा के लिये भेजी । जिनमें अम्बाला, लुधियाना, मालेरकोटला, जीरा, जालन्धर, होशयारपुर, अमृतसर, जंडयालागुरु, पट्टी. नारोवाल, सनखत्तरा और गुजरांवाला आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपने इस चतुर्मास में “सम्यक्त्वसार" पुस्तक के उत्तर रूप "सम्यक्त्वशल्योद्धार" नाम का पुस्तक लिखकर सम्पूर्ण किया। 4000 " % यह पुस्तक सर्व प्रथम भावनगर की सभा की तरफ से छपा और उसमें कितना एक भाग सभा की तरफ से और बढ़ाया गया। इस पुस्तक के पढ़ने से, ढूंढक मत और सनातन जैनधर्म में जो अन्तर है वह स्पष्ट मालूम हो जाता है। परन्तु कितने एक शब्द कठिन तथा गुजराती बोली में होने से हिन्दी भाषा भाषियों को इससे उतना लाभ नहीं पहुंच सकता, इसलिये कई एक लोगों का विचार है कि इस पुस्तक को जिस ढंग से जिस भाषा में लिखा है उसी रूप में उसको छपवाया जावे ताकि सर्व साधारण इससे लाभ उठा सकें । परन्तु यह विचार गुरुदेव के स्वर्ग सिधारने के बाद ही कार्य रूप में परिणत हुअा, पहले नहीं । स्वर्गीय बाबू जसवन्त राय जैन ने इसे लाहौर में छपवाकर प्रकाशित कराया। बाद में दूसरी श्रावृत्ति भी छपी और खतम होगई, जब इसकी तीसरी श्रावृत्ति छपने को थी कि देश के विभाजन रूप पाकिस्तानी विप्लव में प्रेस आदि नष्ट होगये और छपना बन्द होगया । अब फिर छपवाने का विचार किया गया है, श्राशा है प्रस्तुत चरित्र के साथ ही इसके छपने का भी प्रबन्ध हो जावेगा।-लेखक , Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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