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________________ अध्याय ६६ " शिष्य वियोग " -:: मानवजीवन सुख दुःख और संयोग वियोग का केन्द्र है । जीवन यात्रा में उसे अनेक प्रकार के इष्टानिष्ट सम्बन्धों का अनुभव करना पड़ता है परन्तु जिनका मानसस्तर संसार से कुछ ऊंचा उठा हुआ होता है उनका जीवन इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोग आदि से अधिक विक्षुब्ध नहीं होता । अहमदाबाद पहुँचने के लिये जोधपुर से अपने शिष्य परिवार के साथ विहार करके जब श्री आनन्द विजय - श्रात्मारामजी महाराज पाली शहर में पधारे तो वहां आपके प्रधान शिष्य श्री लक्ष्मीविजयजी [ जो कि पहले से कुछ रुग्ण थे ] का स्वर्गवास होगया । श्री लक्ष्मीविजयजी आपके प्रधान शिष्य वर्ग में से एक थे । ढूंढक पंथ मैं रहते हुए आपने जो क्रान्तिकारी आन्दोलन पंजाब में उठाया उसमें सबसे अधिक सहयोग इन्हीं महात्मा ने दिया था। ये महात्मा श्री आत्मारामजी की दक्षिण भुजा कहे जाते थे । ऐसे शासन सेवी सुयोग्य शिष्य के वियोग से आपश्री के गम्भीर और प्रशांत मन को भी खेद तो हुआ परन्तु सांसारिक पदार्थों की क्षणभंगुरता का विचार करते हुए जहां आपने अपने मन को संभाला वहां शोक निमग्न श्री संघ को भी सांत्वना दी और अपने लक्ष्य की ओर बढते रहने का आदेश दिया । आपश्री के वचनामृत से शोक सन्तप्त जनता के मानस को कुछ धैर्य और शान्ति मिली । Jain Education International $ स्वर्गवास चैत्र कृष्णा चतुर्दशी-गुजराती फाल्गुन कृष्णा १४ सम्वत् १६४० में हुआ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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