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________________ - अनीश्वरवाद भी नास्तिकता का कारण नहीं आपके साधु समागम में आने का यह मुझे अपूर्व लाभ प्राप्त हुआ है । अच्छा अब आप आर्यसमाज और उसके कतिपय सिद्धान्तों के विषय में भी थोड़ासा स्पष्टीकरण करने की कृपा करें । आप श्री के भाषण में जितना माधुर्य है, और वर्णनशैली जितनी आकर्षक अथ च हृदयस्पर्शी है उसको देखते हुए तो कोई भी विचारशील पुरुष आपके आदर्श व्यक्तित्व के सामने नतमस्तक हुए बिना नहीं रह सकता। आपश्री के पुनीत दर्शनों से मेरे हृदय को जो सन्तोष और सान्त्वना मिली है उससे तो मैं 'गंगापापं शशीतापं दैन्यं कल्पतरुस्तथा । पापंतापं च दैन्यं च हरति साधु समागमः ॥" इस श्लोक के भावार्थ को यहां प्रत्यक्ष रूप में चरितार्थ होते देख रहा हूँ । श्री आनन्द विजयजी-राजन ! यह तो आपका प्रकृतिसिद्ध सौजन्य है जो आप मेरे विषय में इस प्रकार के उद्गार निकाल रहे हैं । मैं तो इस योग्य नहीं हूँ, अस्तु अब हम आर्यसमाज के विषय में विचार करें। “आर्यसमाज" इस शब्द का व्युत्पत्ति लभ्य यौगिक अर्थ होता है श्रेष्ठ पुरुषों का समुदाय । आर्य नाम श्रेष्ठ का है, समाज समुदाय को कहते हैं । तब, संसार में जितने भी श्रेष्ठ पुरुष हैं उन सब के समुदाय या समूह को आर्यसमाज इस नाम से निर्दिष्ट किया जा सकता है। परन्तु आपने जिसको लक्ष्य रखकर प्रश्न किया है वह इससे भिन्न और केवल स्वामी दयानन्दजी की ओर से दी गई "आर्यसमाज" इस संज्ञा-नाम से निर्दिष्ट होने वाला संज्ञावाची रूप शब्द है । दूसरे शब्दों में कहूँ तो स्वामी दयानन्दजी के विचारों का अनुसरण करने वाले पुरुषों का समुदाय आर्यसमाज । अतः आर्यसमाज के सिद्धान्त या मन्तव्य वे ही हो सकते हैं जो कि स्वामी दयानन्दजी के थे । तब पार्यसमाज के सिद्धान्तों पर विचार करने का अर्थ होता है स्वामी दयानन्दजी के सिद्धान्तों का अवलोकन करना । परन्तु स्वामीजी के जीवन का अध्ययन करने से मैं तो इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि उनका कोई भी निश्चित सिद्धान्त नहीं था । एक वक्त था जब कि वे मुक्तात्मा का पुनरागमन नहीं मानते थे फिर एक वक्त आया जब कि आप इसका तीव्र विरोध करने लगे और मुक्त जीवों की पुनरावृत्ति मानने लगे । इसी प्रकार एक समय था जब कि आप शैव मत का प्रचार करते, रुद्राक्ष पहनते और शिवलिंग का पूजन करते थे। फिर कुछ समय बाद आप उसका खंडन करने लगे। इसी भांति एक समय उन्होंने मृतक का श्राद्धतर्पण करना वेद विहित कहा और फिर कुछ समय बाद उसी को वेद विरुद्ध बतलाया । इन बातों से प्रतीत होता है कि वे अभीतक किसी निश्चित सिद्धान्त तक नहीं पहुंच पाये थे । क्या मालूम यदि वे कुछ काल और जीवित रहते तो अपने विचारों में क्या २ परिवर्तन $ करते। आपश्री के इस कथन को स्वर्गीय लाला लाजपतराय के निन्न लिखित उल्लेख से और भी समर्थन प्राप्त होता है यथा ___ "हम को भली भांति विदित है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने जीवन में कई बार अपनी सम्मतिएं पलटीं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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