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नवयुग निर्माता
इसलिये जिनके विचार इतने अस्थिर हों उनके किसी भी विचार को सिद्धान्त समझ कर उसपर ऊहापोह करना यह भी मस्तिष्क को श्रम देना और समय को व्यर्थ यापन करना होगा। तो भी आपकी जिज्ञासा को ध्यान में रखते हुए कतिपय विषयों पर संक्षेप से विचार करलेना भी अनुचित प्रतीत नहीं होता।
(१) जैन दर्शन के सिद्धान्तानुसार इस अनादि सृष्टि में यह जीवात्मा स्वकृत शुभाशुभ कर्मों के अनुसार अनेक प्रकार की ऊंची नीची योनियों में भ्रमण करता हुआ नाना प्रकार के सुख दुःखों का अनुभव करता चला आ रहा है । जब कभी इस मानव शरीर में आने के बाद उसे जन्म मरण परंपरा के हेतुभूत कर्मों से छुटकारा देने वाले साधनों की उपलब्धि हो जाती है, और वह उन साधनों के द्वारा इन कर्मों का नाश करके अपने वास्तविक शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करलेता है उसका यह वास्तविक शुद्ध स्वरूप ही परमात्मस्वरूप हो जाता है, इस परमात्मस्वरूप को प्राप्त कर लेने के बाद उसका संसार भ्रमण सदा के लिये बन्द हो जाता है। और कर्म बन्धन से सदा के लिये मुक्त हुआ २ वह आत्मा शरीर का परित्याग करने के अनंतर अपने सच्चिदानन्द स्वरूप में सदा के लिये अवस्थित रहता है इसी अवस्था का नाम मोक्ष है और ऐसी अवस्था को प्राप्त करने वाला श्रात्मा जैन परिभाषा में सिद्ध के नाम से प्रख्यात होता है। तात्पये कि जिस प्रकार भट्टी में भुंजा हुआ बीज अनेक यत्न करने पर भी अंकुर नहीं देता उसी प्रकार कर्म रूप बीज के दग्ध हो जाने पर संसाररूप अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती, अर्थात् कर्मों को सर्वथा विनष्ट करके मुक्ति को प्राप्त हुआ यह जीवात्मा फिर जन्म मरण धारण नहीं करता है । जैसा कि शास्त्रकारों ने कहा है
"दग्धे बीजे यथात्यन्तं, 'प्रादुर्भवति नांकुरः ।
कर्मबीजे तथा दग्धे नारोहति भवांकुरः ।। तब जैन मान्यतानुसार कर्मों की प्रात्यन्तिक निर्जरा से प्रकट होने वाली आत्मा की लिरावरण ज्ञान ज्योति के लोकव्यापि प्रकाश में कर्मबन्ध के हेतुभूत रागद्वेषादि कषायरूप अन्धकार का जव कि वहां अस्तित्व ही नहीं तो फिर मोक्षगत श्रात्मा को वापिस संसार में लाने वाला कौन ? एक समय था कि वह शैव मत का प्रतिपादन करते थे, और रुद्राक्ष और कंठीमाला धारते थे। फिर एक समय अाया कि उसका खंडन करने लगे । एक समय था कि वह [ देखो चान्दपुर का वाद ] मोक्ष की अवधि नहीं मानते थे, और उनका निश्चय था कि मुक्त हुई अात्मा फिर देह धारण नहीं करती। फिर वह समय अाया कि उन्होंने अपनी सम्मति पलट दी, श्रादि आदि । किसको विदित है कि यदि वह जीते रहते तो अपने जीवन में और क्या क्या सम्मतिये पलटते । जितनी श्रायु बढ़ती थी उतनी ही विद्या और ज्ञान उनका अधिक होता जाता था। उतना ही प्रत्यय प्रकाश उनपर डालता जाता था । ऐसी अवस्था में कौन कह सकता है कि स्वामीजी निर्धान्त थे। जो महाशय उनको निर्धान्त मानते हैं वह कृपा कर उस समय को भी प्रकट करें जब कि वह निन्त हुए।"
["महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती और उनका काम" पृ० १४२]
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