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________________ २६० नवयुग निर्माता की ओर जा रहे हैं उन्हें आस्तिकता के मार्ग पर लाने के लिए मेरा यह प्रयत्न है" ऐसी परिस्थिति में जैन दर्शन को अनीश्वरवादी कह कर नास्तिक बतलाने या सिद्ध करने की चेष्टा करना कहां तक उचित है इसका विचार आप स्वयं करें । आपने फिर कहा- राजन ! बुरा न मानना, यदि मैं स्पष्ट शब्दों में कहूँ तो स्वामी दयानन्दजी ने जैनधर्म के विषय में जो कुछ कहा व लिखा है वह सब उनकी परमत विद्वेषपूर्ण दूषित मनोवृति का ही परिणाम है । ऐसी मनोवृत्ति रखने वाले व्यक्ति से - फिर वह कितना ही विद्वान् या प्रतिभाशाली क्यों न हो वस्तुतत्त्व के यथार्थ निर्णय की आशा रखना ऐसा ही है जैसा कि बालुका के कणों से तेल की आशा करना । स्वामी दयानन्दजी को जैन धर्म का कुछ भी बोध हो अथवा उन्होंने जैनशास्त्रों का थोड़ा बहुत स्वाध्याय भी किया हो या जैन धर्म को समझने का कुछ भी प्रयत्न किया हो, ऐसा उनके लेखों से प्रमाणित नहीं होता ! दूसरे शब्दों में कहूँ तो जैनधर्म के विषय में वे बिल्कुल कोरे थे । ऐसी दशा में बिना समझे सोचे उन्होने जैनधर्म और उसके अनुयायिवर्ग पर जो असभ्य आरोप किये हैं, यह सब कुछ उनके परमत विद्वेष की भावना से भरे हुए व्यक्तित्व को ही आभारी है । वे कहते हैं कि - "स्वामी शंकराचार्य का अद्वैत मत ठीक नहीं है। हां अगर जैनों के खंडन के लिये उन्होंने इस मत का स्वीकार किया हो तो अच्छा है" उनके ये शब्द किसी प्रकार की व्याख्या की अपेक्षा नहीं रखते इनसे जैनधर्म के प्रति उनकी मनोवृति कैसी थी इसका स्पष्ट ज्ञान हो जाता है । फिर यदि जैनों को नास्तिक कहें व मानें तो इसमें आश्चर्य की कौनसी बात है । अब आप स्वयं विचार करें कि जैन मत नास्तिक है या आस्तिक ? मैंने तो जो कुछ संक्षेप से कहना था वह कह दिया । श्री प्रतापसिंहजी - महाराज ! मैं तो समझता था कि आप केवल जैनधर्म के ही ज्ञाता होंगे परन्तु आप तो जैन जैनेतर सभी शास्त्रों के पारंगत प्रमाणित हुए ! आस्तिक नास्तिक शब्द का इतना सुन्दर और तलस्पर्शी प्रामाणिक विवेचन सुनने का मेरे जीवन में यह पहला ही अवसर है। आजतक तो मैं यही समझता रहा कि जैनधर्म वेद विरोधी एक नास्तिक धर्म है, परन्तु आज आपने आस्तिक नास्तिक का जो परमार्थ समझाया है उससे तो मेरी आंखें खुल गई और मुझे स्पष्ट अनुभव होने लगा कि मेरी पहली विचारधारा भ्रान्तथी मुझे उसका त्याग कर देना चाहिये और मैंने अब उसे अपने मन से निकाल भी दिया है । Jain Education International * प्राय एव हि मीमांसा लोकैलोकायती कृता । तामास्तिकपथेनेतुं प्रयत्नोऽयं कृतो मया ॥ १ ॥ [ तंत्रवार्तिक ] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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