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अध्याय ६८ 'अनीश्वरवाद भी नास्तिकता का कारण नहीं
आपके स्वामीजी ने जैनों को अनीश्वरवादी कह कर नास्तिक ठहराया, अर्थात् जैन दर्शन ईश्वर को नहीं मानता इसलिये वह नास्तिक है, उनका यह कथन भी युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता। जैनदर्शन ईश्वर को. तो मानता है परन्तु उसे सृष्टिकर्ता नहीं मानता । यदि सृष्टिकर्ता न मानने का नाम ही अनीश्वरवाद है तब तो जैन दर्शन अपने को अनीश्वरवादी कहने में कोई दोष नहीं समझता । अगर इस दृष्टि से उसे अनीश्वरवादी कहा जाय तो वह उसे मुक्तकंठ से स्वीकार करेगा। तब यदि इस प्रकार के अनीश्वरवाद को नास्तिकता का कारण मान लिया जाय तो जैनदर्शन की भांति सांख्य और मीमांसादर्शन तो नास्तिकता की प्रथम कोटि में गिने जाने चाहिये । वेदों को अपौरुषेय और परम प्रमाण मानने वाले ये दोनों दर्शन स्पष्ट शब्दों में ईश्वर के अस्तित्व से इनकार करते हैं। इनमें जितनी प्रबलता से ईश्वरकर्तृत्ववाद का खंडन किया है उससे तो जैन दर्शन में बहुत कम देखने में आता है। -- जैन और बौद्ध धर्म के प्रबल विरोधी मीमांसिकधुरीण कुमारिलभट्ट ने तो यहां तक लिखा है कि "विना प्रयोजन के कोई मूढ़ पुरुष भी किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होता, तो ईश्वर का सृष्टि रचने में क्या प्रयोजन है?” यदि ईश्वर इस सृष्टि की रचना न करता तो उसका कौनसा ऐसा काम था, जो अधूरा पड़ा रहता ?x एवं सांख्य दर्शन भी प्रकृति पुरुष के अतिरिक्त किसी अन्य ईश्वरादि पदार्थ को नहीं मानता । परन्तु ईश्वरवाद का स्पष्ट शब्दों में प्रतिवाद करने वाले इन दोनों दर्शनों को आज तक किसी ने भी नास्तिक नहीं कहा । न तो स्वामी दयानन्दजी ने और न अन्य किसी प्रमाणिक विद्वान् ने । जब कि जैनदर्शन की भांति ये दोनों भी अनीश्वरवादी हैं। वल्कि कुमारिलभट्ट ने तो यहां तक लिखा है कि "जो लोग नास्तिकता
४ प्रयोजनमनुद्दिश्य मन्दोऽपि न प्रवर्तते । जगञ्चासृजतस्तस्य किंनामेष्टं न सिध्यति [ श्लो० वार्तिक ]
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