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________________ अध्याय ६७ "आस्तिक नास्तिक शब्द का परमार्थ" अब आप अपने प्रश्नों के उत्तर की ओर भी तटस्थ मनोवृत्ति से ध्यान देने की उदारता करें। भारतीय दर्शनों को दो श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है, एक वैदिक दूसरी अवैदिक । वेदोपजीवि अर्थात् वेदों के आधार से वस्तुतत्व का निर्वचन करने वाले दर्शन वैदिक, और वेदों की अपेक्षा न रखकर वस्तु स्वरूप का निरूपण करने वाले दर्शन अवैदिक कहे व माने जाते हैं। पहली श्रेणी में, न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त आदि की गणना है, जब कि दूसरी श्रेणी में चार्वाक, जैन और बौद्ध आदि दर्शनों का निर्देश कियाजाता है । इनमें केवल अनात्मवादी चार्वाक्दर्शन को छोड़कर बाकी के सभी दर्शन आत्मवादी होने के नाते आस्तिक हैं। आस्तिक और नास्तिक दोनों शब्द आत्मा और परलोक के स्वीकार तथा निषेध के बोधक हैं। अतः जो दर्शन इस पांच भौतिक या औदारिक शरीर से अतिरिक्त आत्मा की सत्ता और उसके आवागमन को मानता है वह आस्तिक है, और जो इन दोनों बातों से इनकार करता अर्थात् न तो शरीर से अतिरिक्त किसी चेतन सत्ता का स्वीकार करता है और न उसके आवागमन को मानता है वह दर्शन नास्तिक कहलाता है। शब्द शास्त्र के अनुसार आस्तिक और नास्तिक शब्द का व्युत्पत्तिजन्य सर्व सम्मत अर्थ भी यही है । पा अस्ति नास्ति दिष्टं मतिः [ पाणिनीय व्याकरण सू० ४।४।६० ] ............ अस्ति परलोकः, इत्येवं मतिर्यस्य सः आस्तिकः, नास्तीति मतिर्यस्य स नास्तिकः इत्यादि। अर्थात् परलोक है ऐसी जिनकी मति-धारणा है वह आस्तिक और परलोक नहीं ऐसी धारणा रखने वाला नास्तिक कहलाता है। __ महाभाष्यम्- किं यस्यास्तिमति: आस्तिकः किश्चात श्चौरेपि प्राप्नोति ।एवं तर्हि इति लोपोऽत्र द्रष्टव्यः । अस्तीत्यस्यमतिः आस्तिकः नास्तीत्यस्यमतिः नास्तिकः । [ पतञ्जलिः ] प्रदीपम्-अस्ति, चौरेऽपीति-तस्यापिमति सद्भावात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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